SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन दीमकके कीड़े बहुतसे मिलकर ही एक बडी चैंबी बनाते हैं परन्तु उनमें कुछ भी मतभेद या विरोध नहीं होता और उसले उनके कार्यमें भी किसी प्रकारको क्षति नहीं पाती। इसी प्रकार अनेक कारीगर लोग मिलकर बड़े बड़े मकान बनाते हैं उनमें भी कभी कुछ मतभेद नहीं होता तो फिर बहुतले ईश्वर मिलकर जगतको बनावें तो उसमें किस तरह मतभेद या अव्यवस्था हो सकती है ? क्योकि पूर्वोक्त तमाम व्यक्तियोसे ईश्वर हजार दर्जे चतुर और निपुण हैं। तथा रागद्वेपरहित होनेके कारण एक साथ मिल: कर कार्य करने में उनमें कदापि मतभेद या विरोध नहीं हो सकता। दूसरी एक बात यह भी है कि यदि आप ईश्वरको जगतकर्ता माने तो आपको यह भी मानना पड़ेगा कि जगतमें छोटी बड़ी जितनी वस्तुयें देख पड़ती हैं वे सभी ईश्वरकी ही बनाई हुई है। और ऐसा माननेसे हमारे शालोको बनानेवाले भी ईश्वर ही है अतः श्रापको उन ईश्वरप्रणीत हमारे शास्त्रोको मान्य करना चाहिये। ऐसा माननेसे जगतमें ऐसा एक भी शान वाकी न रहेगा कि जिसे ईश्वरने न बनाया हो और ईश्वरकी वनाई हुई सब वस्तुयें प्रमाणिक होनेके कारण जगतमें कोई वादी या प्रतिवादी नजर ही न ायगा। इस प्रकार ईश्वरको जगतकर्ता माननेले अनेकानेक दूषण उपस्थित होते हैं और किसी युक्ति या दलीलसे यह बात सावित भी नहीं होती, इसी कारण हम ईश्वरको जगतकर्ता और उसका पालक तथा संहरता तरीके नहीं मानते। हम तो उसे रागद्वेषरहित, सर्वज्ञ तथा सत्यतत्वका प्रकाशक मानते हैं और इस प्रकारके एक अनेक ईश्वरोको हम देवतया पूजते हैं। सर्वज्ञवाद जैन संप्रदायवाले अपने ईश्वरको सर्वज्ञ मानते हैं, अर्थात् ईश्वर इस लोक, अधः लोक तथा उर्व लोक एवं उनमें रहे हुये चराचर पदार्थाको जानते हैं ऐसा मानते हैं, परन्तु जैमिनि ऋषिके
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy