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________________ ३८ जैन दर्शन जैसा अन्य कोई मनुष्य विद्यमान न होनेसे एक दूसरेकी समानता द्वारा, अर्थात् उपमान प्रमाण द्वारा भी सर्वज्ञकी सिद्धी नहीं हो सकती। जैन-आगम-याने शास्त्रप्रमाण द्वारा उस सर्वशकी सिद्धि हो सकती है, क्योंकि शास्त्रों में कहा है कि ईश्वर सर्वक्ष होता है। जैमिनि आपका यह कथन भी असत्य ही मालम देता है, क्योंकि वे आगम किसके बनाये हुये हैं इस बातकी कुछ भी खवर नहीं। क्या मालूम कि किसी धूर्त मनुष्यने ही वे आपके आगम या शास्त्र बनाये हो ? आप यह तो कह ही नहीं सकते कि शास्त्र सर्वज्ञके वनाये हैं क्योंकि अभीतक तो यह वात भी अधर . ही है कि जगत में सर्वज्ञ हो सकता है या नहीं! जव सर्वक्षका ही पता नहीं तो फिर उसकी छति मानी ही कैसे जासके ? जैन-महाशयजी! ऐसी बहुतसी बातें हैं कि जिनका प्रतिपादन विना सर्वज्ञके अन्य कोई कर ही नहीं सकता। जिस प्रकार सूर्यचंद्रका ज्ञान, तारामंडलका ज्ञान तथा ज्योतिष शास्त्र एवं ग्रहण आदिका ज्ञान हम वर्तमान कालमें भी प्राप्त करते हैं और इसीसे यह अनुमान लगा सकते हैं कि नजरसे न देख पड़ते हुये इन तमाम विषयोंको जनानेवाला कोई पुरुप ऐसा अवश्य होना चाहिये कि जो इन सवको जानता हो अर्थात् सर्वज्ञ हो। इस प्रकार सुगमता पूर्वक सर्वशकी सिद्धि हो सकती है। . जैमिनि आपने जो कथन किया है सो बहुत ही सोच विचार कर फरमाया है, तथापि उसमें सत्यताकी गन्ध तक नहीं आई, क्योंकि हमारे जैसा कोई भी एक मनुष्य कि जो गणित शास्त्रका अच्छा अभ्यासी और अनुभवी हो सूर्य, चंद्र, तारामंडल, ज्योतिप और ग्रहण वगैरहका ज्ञान संपादन कर सकता है और दूसरोंको करा भी सकता है, परन्तु इससे वह कोई सर्वश नहीं हो सकता। अतः पूर्वोक्त प्रकारसे भी सर्वशकी सिद्धि नहीं हो सकती, अर्थात् ऐसा एकभी प्रमाण नहीं मिलता कि जो सर्वशके अस्तित्वको सावित कर सके। जैन-महाशयजी ! जिस प्रकार खानमें रहा हुआ सुवर्ण
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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