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________________ ईश्वरवाद ३५ तथा वह किसी प्रकार सर्वज्ञ भी साबित नहीं हो सकता, क्यों कि आपकी दलीलोंमें ऐसी एक भी दलील नहीं है कि जिसके द्वारा उसे सर्वशतया मान सकें। । कर्तृवादी-महाशयजी! इतनी जल्दी न कीजिये, हमारे पास ईश्वरको सर्वश सावित करनेकी दलील है। यदि वह सर्वश न हो तो उसके बनाये हुये इस जगतमें ऐसी अनेक प्रकारकी विचित्रतायें किस तरह देख पड़ें ? अर्थात् जगतमें रही हुई अगणित विचित्रतायें ही ईश्वरकी सर्वशताको साबित करने में बस हैं। अकर्तृवादी-यह कोई दलील नहीं कही जा सकती, जगतमें जो विचित्रता देख पड़ती है वह सिर्फ जीवोंके शुभाशुभ काँके लिये देख पड़ती है । प्राणियोंके अच्छे बुरे कर्मोंके कारण तो इससे भी अधिक विचित्रता जगतमें हो सकती है। इस लिये जगतकी विचित्रताके कारण ईश्वरका सर्वशपन साबित नहीं हो सकता। यदि वह सचमुच ही सर्वज्ञ होता तो फिर हमारे जैसे कापनका विरोध करनेवालोको क्यों पैदा करता? तथा जिन असुरोका उन्हें संहार करना पड़ा उन्हें प्रथमसे ही क्यों बनाता? एक मन्द बुद्धिवाला मनुष्य भी इतना समझता है कि जिस मकानको चिनकर ढ़ा देना पड़े उसे चिननेकी आवश्यकता ही क्या? इस लिये बना कर मारनेकी अपेक्षा असुरोको वनाना ही क्यों था? यदि सच पूछो तो ऐसा करनेसे उन्हें न बनानेमें ही ईश्वरकी चतुराई थी। इस तरह किसी प्रकार भी कर्ता ईश्वरका सर्वज्ञपन साबित नहीं होता । दूसरी बात यह है कि आप जो ईश्वरको एक मानते हैं सो भी अनुचित ही मालूम होता है। यदि आपको यह भय हो कि ईश्वर अधिक हो तो जगतकी रचनामें मतभेद उत्पन्न हो जाय और उससे जगतरचनाको यथार्थ व्यवस्था न हो सके तो आपकी यह कल्पना सर्वथा असत्य हैं, क्यों कि मधुमक्खिये जैसे क्षुद्र प्राणी भी हजारों मिलकर ही मधुछत्ता बनाते हैं, उनमें जरा भी मतभेद या परस्पर विरोध नहीं होता और न ही उनके कार्यमें अव्यवस्था होती। अज्ञान चींटिये बहुतसी मिलकर ही अपना घर बनाती हैं।
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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