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________________ जैन दर्शन अकर्तुवादी - महानुभाव ! यह तो आपकी अन्ध श्रद्धा या विचारशून्य भक्ति है । आप जरा ध्यान देकर विचार कीजिये कि यदि जगत की रचनामें उसके सिर्फ अस्तित्वकी ही श्रावश्यकता हो तो इस जगतका रचनेवाला ईश्वर एक ही क्यों हो सकता है ? जिस प्रकार ईश्वर हयात है उसी प्रकार लुहार, कुंभार, सुतार -. बढ़ई वगैरहका भी अस्तित्व है । इन सबके अस्तित्वमें कोई ऐसी विशेषता नहीं है कि एकके अस्तित्वसे ही जगतकी रचना हो सके और दूसरेके अस्तित्वले न हो सके । इस लिये मात्र अस्तित्वसे. ही जगतकी रचनायें ईश्वरको लानेमें दूसरे भी अस्तित्व रखनेवाले लुहार, कुंभार आदि आकर ईश्वर के ईश्वरत्वका हिस्सा ले सकेंगे। २.८ कर्तवादी - खैर यह दलील आपके दिलमें नहीं जचती तो इसे छोड़ दीजिये, हम ईश्वरके ज्ञानीपन को ही जगत रचनाका कारण मानेंगे और उस कारण द्वारा ईश्वरको जगतकर्त्तामानेंगे, कहिये व तो किसी प्रकारका बाघ नहीं न ? कर्तृवादी - महाशयजी ! आपकी यह दलील भी निर्मूल ही है, क्योंकि ज्ञानी तो योगी पुरुष भी होते हैं परन्तु वे कभी जगतकी रचना नहीं करते । इस लिये जगतकी रचना ज्ञानीपनको कारण बनाना यह सर्वथा अघटित है । कर्तुवादी - ईश्वरमे ज्ञान इच्छा और प्रयत्न ये तीनों गुण होने से वह जगतको रच सकता है, अर्थात् जगतकी रचनामें ईश्वरका ज्ञानीपन, इच्छावानत्व और प्रयत्नवानत्व ये तीनों कारणभूत हैं । अकर्तृवादी - महाशयजी श्राप बराबर ध्यान नहीं रखते, हम प्रथम ही आपके समक्ष यह सिद्ध कर चुके हैं कि शरीरके अस्तित्व में ही ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न कारणभूत हो सकते हैं और शरीरके अस्तित्व विना ये तीनों ही आकाशपुष्पवत् निरर्थक हैं। हाँ यदि आप ईश्वरको शरीरधारी मानें तो बेशक उसके ज्ञान इच्छा और प्रयत्नको आप जगत की रचना कारणभूत मान सकते हैं । परन्तु जव ईश्वरको शरीरवाला ही नहीं मानते तव फिर जगतकी रचना उस अशरीरी ईश्वरके ज्ञान इच्छा प्रयत्न
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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