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________________ २ जैन दर्शन कर्तृवादी-महाशयजी! एक बात आपके लसेवाहर गई मालूम होती है, और वह यही कि सव बनावटों (वस्तुओं ) को देखकर देखने वाले मनमें यह वनाई हुई है इस प्रकारकी बुद्धि पैदा होनी ही चाहिये यह कोई नियम नहीं है और न ही हमारा यह सिद्धान्त है । जैसेकि एक खुदा हुआ गढ़ा हो और उसे जव मिट्टसि पूर्ण करदेनेसे समान कर दिया गया हो . उस समय उसे देखनेसे देखनेवालके मनमें यह कल्पना पैदा नहीं होती कि यहाँ पर प्रथम गढ़ा था और उसे फिर भर देनेसे समतल कर दिया गया है । अर्थात् जिस प्रकार भर दिया हुआ गढ़ा अपने भर दिये गयेपनको नहीं मालम करा सकता उसी प्रकार कदाचित् पृथवी आदि भी अपने कृतपनको न मालून करा सकें यह बात संभवित है । परन्तु इससे उनमें रहा हुआ कृत्रिमत्व थोड़े ही चला जा सकता है ? बल्कि उन वस्तुओंमें गुप्त तया रही हुई कृत्रिमताद्वारा ही करनेवालेकी कल्पना उपस्थित की जा सकती है। इस लिये पृथवी वगैरेहमें कृत्रिमताकी चुद्धि पैदा होनेमें किसी भी प्रकारकी शंका उपस्थित नहीं हो सकती। अकवादी-महानुभाव ! आप भी ठीक फरमाते हैं, आपकी दलीलोसे कोई भोला मनुष्य अवश्य समझ सकता है या यो कहना चाहिये कि फस सकता है परन्तु हम तो आपके ही समान तर्कवादी हैं इस लिये हम इस विषयमें ऐसी निर्मल युक्तियोंसे कदापि मोहित नहीं हो सकते। आपने जो गढ़ेका दृष्टान्त दे कर उसकी बाड़में पृथवी आदिके कृत्रिमपनको छिपा रखनेका प्रयास किया है वह सर्वथा व्यर्थ और निष्फल है। क्यों कि वह गढ़ा किसीने भी न किये हुये इस प्रकारके पृथवीके समतलके समान नेवलमें देख पड़नेके कारण कदाचित् देखनेवालोंको अपने अकत्रिम पनका भ्रम पैदा करे, अर्थात् अपने वास्तविक कृत्रिमपनको छिपा रक्खे यह हो सकता है, परन्तु पृथवी आदिको ऐसी कौनसी वस्तुकी उपमा दी जा सकती है कि जो किसीकी की हुई न हो और जिससे यह उस गढ़ेके समान अपने कृत्रिम भावको छिपा रक्खे । अर्थात् यदि पृथवी आदि सचमुच ही कृत्रिम भाववाली
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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