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________________ ईश्वरवाद २३ वस्तुयें हो तो उनमें रहा हुआ कृत्रिमभाव किसी भी प्रकारकी आपत्ति विना प्रगट होना चाहिये। परन्तु यह तो आपके ही कथनानुसार वे वस्तुयें अपने कृत्रिमपनको देखनेवालेके मनमें नहीं ठसा सकती तो फिर उसके द्वारा उसके कर्ताका पता कहाँ लग सकता है ? तथा जो आप कलमका उदाहरण दे कर जगतके रचयिताकी कल्पनाको दृढ़ करते हैं सो भी उचित मालूम नहीं देता, क्यों कि आप जगतकर्ताको शरीर रहित मानते हैं और कलमका कर्त्ता तो प्रत्यक्ष ही शरीरधारी नजर आता है। इससे शरीर धारी कर्ता द्वारा की गई हुई कलमके साथ जगतकी साम्यता करके यों कहना कि जगतको किसी अशरीरी व्यक्तिने बनाया है यह किस तरह घटित हो सकता है ? हाँ यदि कलमकर्ताके समान ही जगतकर्ताको भी शरीर धारी मानलिया जाय तो बेशक यहाँ पर कलमका दृष्टान्त चरितार्थ हो सकता है अन्यथा नहीं । तात्पर्य यह है मात्र कलमके या अन्य किसी वस्तुके दृष्टान्तसे जगत कर्ताकी सिद्धि कदापि नहीं हो सकती। कवादी-श्रापका कथन सत्य है परन्तु हम कलमके सब गुणोंके साथ जगतके सर्व गुणोंकी साम्यता नहीं करते, हम तो सिर्फ यही कहते हैं कि जिस तरह एक कलम वनावट चीज है और उससे ही उसका कोई एक बनानेवाला होना चाहिये उसी प्रकार जगत भी एक वनावट रूप है और इसे भी बनानेवाला क्यों न हो सके ? कलमके दृष्टान्तसे कलम और जगतमें मात्र कृत्रिम भावकी ही समानता है, दूसरी नहीं। यदि आपके कथन किये सुजव यहाँ पर या अन्य किसी वस्तु सव बातोंकी समानता करने जायँ तो एक बातका भी निराकरण नहीं हो सके और न ही कहीं पर सब वातोंकी समानता मिल सकती है। इस लिये कलम और जगतके वीच जो आप सब बातोंकी समानता करके हमारी कल्पनाको धक्का पहुँचाते हैं सो सर्वथा अनुचित है। अकर्तृवादी-महाशयजी! आप फरमाते हैं सो उचित है परन्तु उसमें आपका स्वार्थ होनसे कुछ अनुचितंता भी आ जाती है। देखिये कि हम यह तो कहते ही नहीं और कहेंगे भी नहीं कि
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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