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________________ जैन दर्शन • कर्तृवादी-महाशयजी! आपने जो अभीतक दलीलें पेश की हैं वे मर्यादावाली हानेके कारण कदाचित् ठीक मानी जासकती हैं परन्तु आप दोनों प्रकारकी बनावटमें जो दूषण फरमाते हैं सो हले विलकुल ही असत्य मालूम होता है। साधारण और असाधारण बनावटमै कदाचित् पाप विशेषता मंजूर न करें. परन्तु उन दोनों में वनावट पन समान होनेसे उसके द्वारा बनानेवालेकी सिद्धि करने में क्या वाघ आता है ? अकर्तृवादी-यदि मात्र एक बनावटपनके लिये ही बनाने वालेकी सिद्धि हो सकती हो तो मात्र आत्मत्वके लिये अपने समान ही महादेवका शरीरधारीत्व, अपूर्णत्व, असर्वशत्व और संसारीत्व क्यों नहीं सिद्ध हो सकेगा? क्यों कि जितना और जैसा आत्मत्व महादेव में है उतना ही और वैसा ही आत्मत्व मनुष्यों भी है। वास्तव में गहरा विचार करने पर प्रथम तो यह वात ही समझ नहीं आती कि बनावट या रचनामें असाधारणत्व किस तरह हो सकता है ? कर्तवादी-महाशयजी आप चाहे जो कहें परन्तु हमारी तो यही मान्यता है कि जिस वस्तुको देखकर. वनाई हुई यह बुद्धि पैदा हो उसका कोई भी कर्ता होना चाहिये । बस इसी प्रकार जगत कर्ताकी कल्पना भी सुघटित और योग्य ही मानी जा सकती है। अकर्तृवादी-आपकी मान्यतानुसार आपका कथन ठीक है परन्तु हमारे मन्तव्यके अनुसार जमीन, जल, वायु, आकाश वगैरह 'वस्तुओको देखकर किसीको भी यह वुद्धि नहीं पैदा होती कि ये किसीके वनाये हुये हैं । यह तो आपने खींचातानी द्वारा जवरदस्ती ही मात्र अटकल उपस्थित की हुई है। जिस प्रकार एक पुराना कवा या प्राचीन इमारत देखकर यह कल्पना होती है कि ये किसीके बनाये हुये हैं उस प्रकारकी कल्पना पृथवी श्रादिको देखकर नहीं होती। जहाँ पर बनावटपनकी वुद्धि ही पैदा नहीं होती वहाँ 'पर उसके द्वारा बनानेवालेकी सिद्धि हो ही किस तरह सकती है?
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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