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________________ १८ जैन दर्शन है । उसमें नित्यं नये परिवर्तन होते हैं, वह कदापि एक स्वरूपमें स्थित नहीं रहता । यह बात आप भी प्रत्यक्ष देखते हैं कि प्रतिदिन जगत में अनेकानेक प्राणी जन्म लेते हैं और अनेकानेक प्रतिदिन मरते हैं । जगतमें नित्य प्रति कितने ही वृक्ष उगते हैं और कितने ही कुमला जाते हैं । इस प्रकार जगतमें हमेशह परिवर्तन होता रहता है । जगत नित्य नूतन स्वरुप धारण करता ही रहता है । इससे कदाचित आपको जगत प्रवाहरूपमें नित्य मालूम होता हो परन्तु उसमें रही हुई वस्तुयें सदाकाल एक स्वरूपमें न रहनेके कारण उसे भी नित्य एकस्वरूपमें कायम रहनेवाला नहीं माना जा सकता । अर्थात् जगत एक समान और नित्य एकस्वरूपमें स्थित नहीं रहता, अतः वह बनावटरूप है और इसी कारण उसका कोई एक बनानेवाला होना चाहिये । इस प्रकारकी कल्पना किस तरह असत्य मानी जा सकती है ? कर्तृवादी - महानुभाव ! आपने तो यह भी एक नवीन ही युक्ति निकाली कि जगत ही प्रवाही रूपसे नित्य मालुम देता हो परन्तु उसमें रही हुई वस्तुयें नित्य नये स्वरुप धारण करनेके कारण जगतको भी एक स्वरूपमें नहीं माना जा सकता, अर्थात् जगत परिवर्तनशील होनेसे बनावटी ही माना जा सकता है और इससे बनानेवाला भी सिद्ध किया जा सकता है । यह आपकी पूर्वोक्त मान्यता भी बिलकुल असत्य ही है । जरा इस बात पर ध्यान देकर विचार करें कि आपकी इस प्रकारकी मान्यतासे तो आपके ही मन्तव्यसे नित्य माना हुआ परमाणु ( परम अणु ) और ईश्वर तक भी बनावटरूप ही ठहरते हैं । परमाणु भी स्वयं नित्य याने प्रवाहरूप नित्य है परन्तु उसमें रहे हुये रूप, रस, गन्ध और स्पर्श तो बदलते ही रहते हैं, तब क्या आप उसे नित्य मान सकते हैं ? अथवा ईश्वर जिसे कि आप नित्य मानते हैं उसमें रहे हुये बुद्धि इच्छा और प्रयत्न अमुक खास खास गुण बदलते ही रहते हैं तो क्या इससे आप उसे भी नित्य मानेंगे ? कदाचित् परमाणु और ईश्वर को भी आप अनित्य माननेके लिये हाँ कहै तो फिर बनानेवाले को भी ढूंढ़ना पड़ेगा और इस प्रकार
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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