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________________ ईश्वरवाद १७ अव तो आपके दिलमें यह वात जचने लगी होगी कि सिर्फ वनावट परसे ही वनानेवालेकी अटकलपच्चू कल्पना करना यह सर्वथा निर्मूल और प्रमाणशून्य बात है। वनानेवालेके बगैर एक भी वनावट नहीं रन सकती,-वस्तु मात्रको देखते ही उसके रचयिता का खयाल आता है इस प्रकारकी बिलकुल सीधी सादी बातें कितनी वोदी और दलील रहित हैं यह साधारण मनुष्य भी समझ सकता है। ज्यों ज्यों गहरा चिन्तन और चर्चात्मक विचार किया जाता है त्यो त्यो सत्यासत्यके स्वरूपकी परख हो सकती है । यहाँ पर हम पूर्वोक्त चर्चासे यह प्रत्यक्ष अनुभव कर चुके हैं कि ज्यो ज्यों बनावट रचनाके स्वरूप पर गहरा विचार करते गये त्यो त्यो वह विलकुल निर्मूल बनता गया, बल्कि अन्तमें वह प्रमाण रहित कल्पना हवाई होगई । "मूलं नास्ति कुतः शाखा" इस कहावतके अनुसार जब रचनाके स्वरुपका ही मूल नहीं तो फिर उसके द्वारा रचयिता की सिद्धि तो गगनपुप्प के समान ही है । रचना या बनावट के बारेमें यह भी नियम चरितार्थ होता है कि संसारमें जो वस्तु किसीकी बनाई हुई होती है, उसकी स्थिति मर्यादित होती है । अर्थात् वह अमुक समयतक ही उस रुपमे ठहर सकती है। परन्तु पृथवी, जल, वायु, आदिके समान वह वनावटी या किसीकी रची हुई चीज हमेशहके लिये कायम नहीं टिक सकती । जिस विश्वको आप बनावटी सिद्ध करनेका प्रयत्न कर रहे हैं वह सच्चिदानन्द ईश्वर परमात्माके समान निरन्तर शाश्वत कायम रहनेके कारण वनावटी वस्तुओमें किस तरह गिना जा सकता है? कर्तृवादी-महाशयजी ! आप तो अपने वचन चातुर्यसे ही हमे परास्त करना चाहते हैं, परन्तु यों तो हम किसी भी प्रकार हट नहीं सकते । आपने अपनी दलीलोंके अन्तमें जो यह फरमाया कि जो वस्तु बनावटी या किसीकी रची हुई हो वह हमेशह कायम नही टिकती यह बात तो हमे भी मंजूर है, परन्तु यों कह कर अन्तमें जगतको जो हमेशह कायम रहनेवाला ठहराया है यह वात हमे असत्य मालूम होती है । पयोकि जगत तो परिवर्तन शील
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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