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________________ जैन दर्शन शासनसे बाहर रहे हुओंमें इस प्रकारके मोहका राज्य प्रवर्तता है कि कर्मरहित हुये वाद भी और निर्वाण प्राप्त करने पर भी मुक्ति को प्राप्त करनेवाली आत्मा, संसारमें अवतार ले और स्वयं शरीर धारण कर दूसरोंके लिये शूरवीर बनती है।" यह तो संसारके अन्य देवोंकी हकीकत है परन्तु जिनेन्द्र देव ऐसे नहीं हैं । क्यों कि वे निर्वाण प्राप्त किये वाद पुनः कदापि जन्म धारण नहीं करते। इस यातका स्पष्टीकरण करनेके लिये ही यह पाँचवाँ विशेषण दिया गया है। इस प्रकार पूर्णावस्थाको प्राप्त करनेवाला आत्मा, पूर्वोक्त चारों अतिशयोंसे युक्त हो और एकदफा सुक्त होकर पुनः जन्म धारण न कर सकता हो बस वही देवतया माना जाता है. उसीमें देवत्वं सिद्ध हो सकता है। वही दूसरे प्राणियोंको सिद्धिदायक हो सकता है। परन्तु अन्य कोई रागद्वेष सहित और स्वयं निर्वाण प्राप्तकरने पर भी पुनः संसारके सरकलमें अवतार लेनेवाला देव कदापि दूसरोंका श्रेय सिद्ध नहीं कर सकता । पाँचवें विशेषणका प्रधान प्राशय यही समझना चाहिये • जैन दर्शनमें ईश्वर या देवका स्वरूप उपर कथन किये मुजव है। यद्यपि नैयायिक वगैरह भी इसी प्रकारके ईश्वरको देवस्वरूप स्वीकारते हैं, परन्तु वे इससे उपरान्त ईश्वरको कर्ता हर्ता भी मानते हैं और जैन ईश्वरको उसका एक भी कार्य वाकी न रहनेसे सर्वथा रागद्वेप रहित और अकर्ता मानते हैं। . 'ईश्वरवाद' कर्तृवादी और अकर्तवादी ये दोनों ही ईश्वरके स्वरूपके. विषयमें इस प्रकार चर्चा करते हैं। ___ कर्तृवादी-आपने जो पूर्वोक्त ईश्वरका स्वरूप प्रतिपादन किया है सो यथार्थ है। परन्तु उसमें ईश्वरको कर्त्ता और पालक नहीं कहा सिर्फ इतनी ही त्रुटि मालूम होती है । आपके कहे मुजब जो देव मोक्ष प्राप्त करने पर भी पुनः अवतार धारण करते हैं
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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