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________________ देव. हा कारण मनुष्य, तिर्यंच, खेचर और किन्नरोंके तो सुतराम् ही पूज्य हैं यह तो कहना ही न पड़ेगा। इस तीसरे विशेषेणसे जिनेन्द्र देवका पूजातिशय सूचित किया गया है। सत्य तत्वका प्रकाश करनेवाला-जीव, अजीव भादि तत्वोंका जिस प्रकारका नैसर्गिक यथार्थ स्वरूप है उसी प्रकारका यथातथ्य स्वरूप कथन करने, समझानेवाला । इस चौथे विशेपणसे जिनेन्द्र देवका वाचातिशय प्रगट किया गया है।। सर्व कर्मोको नष्ट करके परम पदको पानेवाला-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अन्तराय ये चार घाती कर्म और बेदनीय, नाम, गोत्र तथा आयुष्य ये चार अघाती कर्म एवं इन आठों ही कर्माको नाश करके परम-अमर-अजर-स्थितिको प्राप्त करनेवाले । इस विशेषण द्वारा सिद्धात्माकी अवस्थाको कर्ममलरहित और जन्म जरा मृत्यु विनाकी सूचित की है। सुगत याने बुद्ध वगैरह अन्य देव तो सिद्ध दशा प्राप्त किये बाद भी अपने धर्मके नष्ट होने पर पुनः संसारमें अवतार धारण करते हैं। वे कहते हैं कि “धर्मरूप घाटको (तीर्थको) निर्माण करनेवाले स्थापन करनेवाले और परम पदको प्राप्त हुये ज्ञानी अपने तीर्थकी अवनति देख फिरसे संसारमें अवतार लेते हैं।" वास्तवमें विचार किया जाय तो इस प्रकारके ज्ञानी कर्म सहित होनेके कारण वे परम पद तक पहुंचे हुये ही नहीं होते। यदि वे कर्ममल रहित होकर मुक्तिपद प्राप्त कर जन्म मरणसे मुक हुये होते तो उन्हें निष्कारण पुनः संसारमें अवतार लेना सम्भवित ही किस तरह हो सकता है ? क्योंकि जिस प्रकार वीज भस्म होजाने पर पुनः अंकूरका ऊगना नहीं होता उसी प्रकार कर्मरूप बीज (कारण) नष्ट होजाने पर फिर संसारमें अवताररूप अंकूरका उद्गम होना असंभव है । परमपद तक पहुंची हुई सिद्धास्माओको भी कारणवश पुनः संसारमें अवतार लेना मानना इस प्रकारका कथन प्रवल मोहमय है । इस विषयमें श्री सिद्धसेन दिवाकरजीने भी इस तरह फरमाया है-" हे भगवन् ! आपके
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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