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________________ १९६ जैन दर्शन तरह नित्यानित्य तथा सामान्य विशेपके पक्ष मी दुषणवाले हैं। इस प्रकार एकान्त मार्ग में अनवस्था दूपण चरितार्थ होता है। तथा वस्तुकी सदूपताका भिन्न आधार और असद्रूपताका अाधार भिन्न, ऐसे दो आधार होनेसे व्यधिकरण नामक दूपण उपस्थित होता है। तथा जिस रूपमें वस्तुकी सद्रूपता है उसी रूपसे उसकी सद्रूपता और असदूपता दोनों हैं। इस प्रकारका संकर दोप भी लागू पड़ता है। क्योंकि एक साथ दोके मिलाप को लेकर कहते हैं। तथा जिस रूपमें वस्तु सद्रूप है उसी रूपमें असद्रूप भी है और जिस रूपमें असद्रूप है उसी रुपमें सद्प भी। ऐसा माननेसे व्यतिकर नामक दूपण भी चरितार्थ होता है। क्योंकि विषयमें एक दूसरेके मिल जानेको व्यक्तिकर कहते हैं तथा पदार्थमानमें अनेकान्तवाद साना जायगा तो पानीको अनिरुप होनेका और याग्निको पानीरुप होनेका प्रसंग उपस्थित होगा और ऐसा होनेसे व्यवहारका लोप हो जायगा ।इस प्रकार व्यवहारलोप नामक छठा दूषण भी लागू पड़ता है। अन्तमें हम (जैनेतर) यह भी कहते हैं कि अनेकांतवाद प्रमाणोंसे भी वाधा पा सकता है। अतएव उसमें प्रमाणवाघ नामक दोष चरितार्थ होता है। तथा कोई एक ही वस्तु अनन्त धर्मवाली हो, यह असम्भवित है। अतः अनेकान्तवादमे त्रसंभव नामक दूपण भी चरितार्थ होता है। इस ग्रंकार अनेकान्तवादमें पूर्वोक्त समस्त दूपण. उपस्थित होनेसे अनेकान्तवादका ग्रहण नहीं हो सकता । . . उपरोक्त जो जो दुपण अनेकान्तवादको लगाये गये हैं वे सव ही निर्मल एवं असत्य हैं और उन्हें असत्य सावित करनेकी युक्ति इस प्रकार है: प्रथमं तो यह कि ठंड़ी और तापके समान सद्रूप और असदुप, ये दोनों धर्म एक दूसरेके साथ किसी तरहका विरोध ही नहीं रखते क्योंकि ये दोनों एक ही समय एक ही वस्तुमे रहसकते हैं। जंव घटरूपमें घट सत् है तव ही वह घट पटरूपमें असत् है। , अंतः इसमें किसी प्रकारका विरोध नहीं सकता।जैलेएक आम्र-. फलमें रुप जुदा और रस जुदा होता है तथापि उसमें किसी प्रका
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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