SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणवाद . १९७ रका विरोध नहीं गिना जाता, वैसे ही यहाँ पर भी समझ लेना चाहिये। तथा यहाँपर विरोध पानेवाले कौन कौनसे कारण हैं ? फ्या मात्र भिन्न भिन्न स्वरुपसे विरोध प्राता है ? एक कालमें न रहनेसे विरोध प्राता है ? एक वस्तुमें न रहनेसे विरोध प्राता है? एक कालमें एक वस्तुके एक समान भागमें नरहनेले विरोध आता है? यदि मात्र भिन्न २ स्वरुपके कारण विरोध पाता हो तो वस्तु मान भिन्न भिन्न स्वरुपवाली होनेसे परस्पर विरोधवाली होना चाहिये और ऐसा होनेसे संसारमें एक भी पदार्थ न रहना चाहिये। दोनों स्पर्श-ठंडा और गरम स्पर्श-जुदे जुदे स्थानमें एक ही समय रह सकते हैं । अतः एक कालमें न रहनेले विरोध आता है, यह कथन भी यथार्थ नहीं ये दोनों स्पर्श एक ही वस्तुमें भिन्न भिन्न समयमें रहते हुये होनेसे 'एक वस्तुमे न रहनेसे विरोध आता है' यह बात भी ठीक नहीं है। धूपदान एवं कुरबी वगैरहमें एक ही समयमें ये दोनों स्पर्श रहनेसे एक कालमें एक वस्तुमें न रहनेले विरोध आता है, यह वात भी असत्य ही है। तथा एक ही लोहेके तपे हुये वरतनमें जहां स्पर्शकी अपेक्षाले उष्णता है वहां भी रूपकी अपेक्षासे शीतलता है। यदि रूपकी अपेक्षासे भी उप्णता हो तो देखनेवालोंकी अांखें जल जानी चाहिये, परन्तु ऐसा न होनेसे यह मानना युक्तियुक्त है कि रूपकी अपेक्षासे उसमें शीतता है । इस प्रकार एक ही पदार्थमें और एक हीसमयमें ये दोनों स्पर्श विद्यमान होनेसे यह नहीं कहा जा सकता कि एक ही समय, एक वस्तुमें और एकाही जगह ये दोनों धर्म न रहनेले विरोध प्राता है । तथा एक ही पुरुषमे भिन्नमित अपेक्षाले लघुत्व, गुरुत्व, वाल्यत्व, वृद्धत्व तरूणत्व, पुत्रत्व, पतित्व, गुरुत्व और शिष्यत्व वगैरह परस्पर विरोध धारण करनेवाले अनेक धर्म एक ही समय रहते हैं और इस वातका सव ही अनुभव भी करते हैं। अतः एक ही पदार्थ में अनेक विरुद्ध धर्म किस तरह घट सकते हैं ? इस प्रकारके प्रश्नको यहाँ पर अवकाश ही नहीं है । जैसे एक पुरूपमें अनेक विरुद्ध धर्म घट सकते हैं वैसे ही प्रत्येक पदार्थमें संत्, असत्, नित्य, अनित्य, सामान्य और विशेष प्रादि परस्पर विरोध धारण
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy