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________________ प्रमाणवाद १९५ सवको होता है और वह युक्तियुक्त होनेसे उसे सव ही मंजूर कर सकते हैं । अतः कदाचित यों कहा जाय कि-जैसे ठंडी और गरमी दोनों सर्वथा विरुद्ध होनेसे एक साथ नहीं रह सकते। वैसे ही सत्व और असत्व, नित्यत्व और अनित्यत्व वगैरह परस्पर विरोध धारण करनेवाले धर्म एक ही पदार्थमें किस तरह रह सकते हैं? जो वस्तु सत् हो वह असत् किस तरह हो सकती है? और जो वस्तु असत् हो वह सत् कैसे हो सकती है ? यदि सत्वको असत्वरुप और असत्वको सत्व' माना जाता हो तो फिर व्यवहार मात्रका नाश होगा--किसी भी पदार्थके स्वरुपका कुछ ठिकाना ही न लगेगा । यही बात एक ही पदार्थको नित्य अनित्य माननेमें भी चरितार्थ हो सकती है। जो वस्तु नित्य हो वह भनित्य किस तरह हो सकती है? और जो वह वस्तु अनित्य हो वह नित्य किस तरह हो सके? इस प्रकार अनेकांतवाद विरोधी दूषण उत्पन्न होता है । इसके लिवाय अन्य भी पाठ दूषण चरितार्थ होते हैं--एक-संशय, दूसरा-अनवस्था, तीसरा-व्याधिकरण, चौथा-संकर, पांचवाँ-व्यतिकर, छठा-व्यवहार लोक, सातवाँ-- प्रमाणवाध और पाठवाँ-असंभव । इसमें पहला संशय दोष इस प्रकार चरितार्थ होता है-- वस्तुको जिस अंशमें सद्रूप मानी जाती है उस अंशमें यदि वस्तु सद्रूप ही हो तो एकान्तवाद जैसी बात होनेसे अनेकान्त मार्गको हानि पहुँचेगी और यदि ऐसा माना जाय कि जिस अंशमें वस्तुको सद्रूप माना जाता है उसी अंशमें उसे सद्रूप और असद्रूप भी माना जाता है तो उसमें भी प्रश्न उपस्थित होता है। जिस अंशमें वस्तुको सद्प और असप माना जाता है उस अंशमें भी वस्तु सद्रूप है या सद्प है? इस प्रकार प्रश्नोंकी परंपरा हुआ करेगी और एक भी प्रश्नका निराकरण न हो सकेगा। अतः इस तरहकी मान्यतामें स्पष्टरूपसे अनवस्था (अवस्था.. रहित स्थिति) ही है। इसी प्रकार जिस अंशमै वस्तुका भेद माना जाता है उस अंशमें यदि भेद ही माना जाय या उसी अंशमें भेद या अभेद ये दोनों माने जाये तो भी उपरोक्त दुषण आते हैं। इसी
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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