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________________ १९४ जैन दर्शन . कदाचित् कोई यह कहे कि उत्पन्न होते हुये और नाश पाते हुए मात्र अकेले धर्म ही हैं परन्तु उन धर्मोंका आधार ऐसा कोई धर्मी नहीं है, तो यह कथन अनुचित है, क्योंकि किसी पदार्थके आधार विना अकेले धर्म हो नहीं सकते, रह नहीं सकते और संभवित भी नहीं हो सकते । किन्तु वे समस्त धर्म एक धर्मीरुप पदाथैमें ही रहते हुये अनुभव होते हैं और यह वात हरएक मनुष्यको मान्य है । यद्यपि उत्पन्न होते हुए और विनाश पाते हुए अनेक धाँको हम जान सकते हैं और उन सर्व धर्माका अाधार एवं अनेक धर्ममय ऐसा एक धर्मी कि जो द्रव्यरुपमें ध्रुव रहता है उसे भी सव मनुष्य सर्वथा निर्विवाद प्रत्यक्षतया अनुभवमें लाते हैं। उसे कोई किस तरह पहचान सके? जिसका अनुभव हमें नजरों नजर होता हो, यदि उसे भी पहचाना जाय तो संसारके व्यवहार मात्रका नाश होनेका प्रसंग आयगा । अतः किसी तरह उन सय धर्मों के आधाररुप पदार्थको-धर्मवालेको-कोई भी मनुष्य पहचान नहीं सकता। अन्तमें कहनेका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्मवाला है, यह वात अनेक प्रमाणोंसे सिद्ध हो चुकी है और अब एक भी शंकाको अवकाश नहीं मिल सकता । इस विपयको विशेष पुष्टी देनेवाला एक अनुमान प्रमाण इस प्रकार है प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मवाली है अर्थात् वस्तुमात्रमें नित्य, अनित्य, सत्, असत्, सामान्य, विशेष, वक्तव्य और श्रवक्तव्य आदि अनेक धर्म रहे हुये हैं, क्यों कि इस प्रकारका. हरएक मनुष्यको अनुभव हुआ करता है । यथार्थ रीतिसे विचार किया जाय तो हम जिस प्रकारका प्रामाणिक अनुभव करते हों, उसी प्रकारका पदार्थोंका स्वरूप मानना चाहिये। जैसे हम घटको घट रूपमें मानते हैं परन्तु पट रूपमें नहीं मानते । वैसे ही हमें अपने अनुभवके अनुसार प्रत्येक पदार्थको अनन्त धर्मवाला मानना । चाहिये। प्रत्येक चीज अनन्त धर्मवाली है। इस बातको सावित कर- ' नेके लिये जो अनुभव रूप.हेतु कहा है वह कुछ प्रसिद्ध नहीं है, विरोधवाला नहीं है, एवं अन्य भी किसी प्रकारका दुषण उसे स्पर्श नहीं करता । क्यों कि यह अनुभव सर्वथा निर्दोष है, ऐसा अनुभव ..
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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