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________________ प्रमाणवाद . १८९ इस अनुभवको शंखके उदाहरणसे किसी तरह भी असत्य साबित नहीं किया जा सकता । इसी प्रकार जीवमें हर्ष, शोक, उदासीनता और क्रोध वगैरह नये नये रंग पैदा होते हैं इस वातका भी सब ही अनुभव करते हैं, अतः इस समस्त परिवर्तनका ज्ञान किसी तरहकी भूलवाला नहीं है। क्योकि यह भूलभरा है यह बात किसी प्रकार लावित नहीं हो सकती। इससे यह वात दूषणरहित और निर्विवाद सिद्ध होती है कि पदार्थमात्र उसके मूल रूपसे द्रव्यरूपमें स्थिर रहता है और उसके पूर्वकालीन आकार नाश होकर वे नये आकारोंको धारण करते हैं। अर्थात् पदार्थमात्र उत्पत्ति,स्थिति और विनाश ये तीनों गुण सर्वथा सरल रीतिसे घटते हैं । यदि यहाँपर यह सवाल किया जाय कि उत्पत्ति स्थिति और विनाश ये तीनो वस्तु सर्वथा भिन्न २ हैं या नहीं? इसके उत्तरमें यदि यों कहा जाय कि ये तीनों वस्तुयें परस्पर सर्वथा भिन्न २ हैं तव फिर एक ही पदार्यमें तीनों किस तरह घट सकते हैं ? और कदाचित् यों कहा जाय कि वे तीनों परस्पर एकरूप हैं तो भी एक ही पदार्थमें ये तीनों किस तरह रह सकते हैं ? क्योंकि वे तीनों जब एकरूप हैं तो उन्हें तीन ही नहीं कहा जा सकता। इस तरह उत्पत्ति स्थिति और विनाश इन तीनोंका परस्पर इस प्रकारका सम्बन्ध है इस वातका निराकरण नहीं हो सकता । इन तीनोंक पारस्परिक सम्बन्धका निराकरण इस प्रकार है ये तीनों धर्म परस्पर कुछ सर्वया भिन्न ही हैं ऐसा नहीं है और परस्पर सर्वथा एक ही हैं ऐसा भी नहीं। इन तीनों में किसी अपेक्षासे जुदाई और किसी अपेक्षासे एकता भी है। जिस प्रकार एक ही घटमें रहनेवाले रूप रस गन्ध और स्पर्श वगैरह परस्पर भिन्न २ होते हैं वैसे ही एक ही पदार्थमें रहनेवाले उत्पत्ति स्थिति और विनाश ये तीनों भी परस्पर भिन्न हो सकते हैं। क्योंकि इन तीनोंके स्वरूप सर्वथा' जुदे प्रकारके हैं। उत्पत्ति याने अस्तित्वको धारण करना, स्थिति कायम रहना और नाश याने अस्तित्वका त्याग कर देना। इस तरह इन तीनोंके स्वरूप भिन्न २ होनेसे ये तीनों परस्पर जुदे २
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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