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________________ १९० , . जैन दर्शन हैं, यह बात सव ही जान सकते हैं। अब कदाचित् ऐसा कहा जाय कि इन तीनोंके जो स्वरूप कथन किये गये हैं उनपरसे यह मालूम होता है कि वे तीनों परस्पर एक दूसरेकी अपेक्षा नहीं रखते ऐसा होनेसे ही वे तीनों परस्पर सर्वथा भिन्न २ ही हैं ऐसा क्यों नहीं कहा जाय ? जो पदार्थ परस्पर एक दूसरेकी अपेक्षा नहीं रखता वह सर्वथा भिन्न ही होता है और इसी प्रकार तीनों परस्पर सर्वथा भिन्न २ क्यों न हो सके ? विचार 'करनेसे मालूम हो सकता है कि यह प्रश्न ही सर्वथा निर्मूल है। क्योंकि इन तीनोंके लक्षण-स्वरूप परस्पर सर्वथा जुदे २हैं। तथापि ये तीनों इस प्रकार परस्पर अपेक्षावाले हैं । स्थिति और नाशके विना एकला उत्पाद-(उप्तत्ति) रह नहीं सकता, स्थिति और उत्पत्तिके विना एकला विनाश नहीं टिक सकता ऐसे ही उत्पत्ति और विनाशके विना स्थिति भी नहीं रह सकती। 'इस प्रकार ये तीनों परस्पर एक दूसरेके मुंहकी ओर देखकर ही जीने वाले हैं अतः ये तीनों परस्पर अपेक्षा रखकर एक ही वस्तुमें रह सकते हैं ऐसा माननेमें कुछ भी दूषणं मालूम नहीं देता । इसी कारण एक पदार्थको भी एक ही साथ तीन धर्मवाला कहनेमें किसी तरहकी हरकत मालूम नहीं होती और नाशके विना तथा कहींपर इस तरह भी बतलाया गया है कि--" सुवर्णका घट टूट गया इससे राजपुत्रीको शोक हुआ, उस टूटे हुए घड़ेका मुकुट बनवाया इससे राजपुत्रको श्रानन्द हुआ और उन पूर्वके तथा पछिके आकारों में सुवर्ण वैसा ही कायम रहा जानकर राजा स्वयं तटस्थ ही रहा । अर्थात् यहाँपर पूर्वके श्राकारका नाश हुअा नवीन आकार उत्पन्न हुआ और इन दोनों आकारों में स्थायि रहनेवाला मूल द्रव्य सुवर्ण सर्वथा ध्रुव रूपसे रहा इस परसे ही सालुम हो सकता है कि एक ही पदार्थ से ये तीनों धर्म रह सके हैं और इसी प्रकार पदार्थ मात्रमें ये तीनों धर्म रह सकते हैं यह वात अनुभव सिद्ध है।" घटके अर्थीको उसका नाश होनेसे शोक हुआ, मुकुटके अर्थीको उसकी उत्पत्ति होनेसे आनन्द हुश्रा 'और सुवर्णका अर्थी सुवर्णके स्थायित्वसे तटस्थ रहा, यह सब कुछ सहेतुक हुआ है।"" दूधके व्रतवाला दही नहीं खाता,
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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