SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८८ जैन दर्शन नख कटगये बाद फिर दूसरा ही जमता है अतः नये नखको भी वहका वही मानना यह बड़ी भारी भूल है। द्रव्यरुप मूलका कदापि नाश होता हुआ और उसके स्थानमें दूसरा मूल आता हुआ श्राजतक किसीने भी नहीं देखा और नही किसीने इस वातका आजतक अनुभव किया है। अतः यह कैसे कहा जा सकता है कि मूलद्रव्य भी नखके समान परिवर्तित हुआ करता है ? और वह पहला ही बढ़ा करता है, वह नखके जैसा भ्रमवाला है ? कोई भी मनुष्य यह नहीं मानता कि सुवर्णकी कंठी तोड़कर कड़े वनवाये वाद वह सुवर्ण वदल जाता है और उसकी जगह दूसरा ही सुवर्ण पाता है। किन्तु सव ही मनुष्य सुवर्णके अनेक घाट घड़ाये वाद भी सुवर्णकी एकरूपताको ही एकमतले स्वीकृत करते हैं। अतः किसी प्रकार भी द्रव्यका नाश संघटित नहीं हो सकता और वैसा .. मानना भी अनुभव एवं व्यवहारसे विरुद्ध है। अर्थात् द्रव्यरूपसे तो पदार्थ मात्र स्थिर ही रहता है परन्तु उसके आकार परिवर्तित हुआ करते हैं, नये उत्पन्न होते हैं पुरानोका नाश होता है, इस प्रकारकी सत्य घटनामें किसी तरहका दूषण मालूम नहीं देता। क्योंकि सवको ऐसा ही अनुभव होता है हुआ है और हुआ करता है। अव कदाचित् कोई यह कहनेका साहस करे कि श्वेत शंखमें जैसे पीले रंगका भास होता है और वह असत्य है वैसे ही वस्तुमें होते हुए परिवर्तन कि जिन्हें यहाँपर पर्याय कहा गया है वह शंखके पीले रंगके समान असत्य ही क्यों न माने जायें ? इस बातका उत्तर इल प्रकार हैं शंखमें जो पीले रंगका भास होता है वह कुछ सवको ही नहीं होता, वह तो मात्र जिसे पाण्डु याने पीलिया रोगहा हो उसे ही.. वैसा मालूम होता है अतः वह भ्रमित है इस बातको सच ही मानते हैं । परन्तु सुवर्णकी मालाका कड़ा वना, कड़ेकी अंगुठी वनी, अंगुठीका छल्ला वना, और छल्लेकी चेन बनी, इस प्रकार जो सुवर्णके अनेक रूप हुआ करते हैं-प्रथमके आकारोंके नाश होकर उनके स्थानमें नये आकार पैदा हुवा करते हैं इस वातको समस्त . संसार एक समान जानता है,मानता है और अनुभवमे लाता है। अतः
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy