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________________ प्रमाणवाद १८७ भी वस्तुमें पीछेसे नहीं आते, वे वस्तुके धर्म ही हैं और हमेशह वस्तुके साथ ही रहते हैं । वे वस्तुको छोड़कर जुदे २ नहीं रहते। उपरोक्त प्रश्न तव ही उठ सकता है और उसमें बतलाया हुआ दूपण भी तव ही लागु पड़ सकता है कि जब वस्तुसे वे उत्पाद वगैरह सर्वथा जुदे हो और वे समस्त वस्तुमात्रमें फिरसे उत्पन्न होते हो। परन्तु यहाँपर वस्तुस्थिति वैसी नहीं है, अतः उपरोक्त प्रश्न या एक भी दूपण लागू नहीं पड़ सकता । इस विषयमें हम यह विदित करते हैं कि जो वस्तु उत्पत्तिरूप, स्थितिरूप और विनाशरूप हो वही अस्तित्व धारण कर सकती है और वैसी ही वस्तु अस्थित्व धारण करनेके योग्य है । अतः हमारे इस कथनमें किसी भी प्रकारके दूपण या प्रशको स्थान ही नहीं मिल सकता कोई भी पदार्थ अपने निजत्पको नष्ट नहीं कर सकता और उसमें नवीन निजत्व भी नहीं आता, अर्थात् मूलद्रव्यकी अपेक्षाले किसी वस्तुकी उत्पत्ति या विनाश नहीं हो सकता। जैसे घटका मूलरूप मट्टी है, यदि अव वह घड़ा फूट जाय तथापि मट्टीका नाश नहीं होसकता,वैसे ही वह मट्टीरूप होनेसे उसमें यह कुछ नवीन नहीं आया। याने घटके परिवर्तित होते हुए अनेक रुपान्तरोंमें उसका मूलरूप मट्टी कायम ही मालूम दिया करती है, अतः यह मानना चाहिये कि सूलद्रव्यका कदापि नाश नहीं हो सकता । परन्तु जो परिवर्तन होता है वह मात्र उसके याकारोंमें ही हुआ करता है । कदाचित् कोई यों कहे कि जैसे एक दफा नख उतराये वाद वह फिर आ जाता है और उस वक्त हमें यह मालूम देता है कि यह नख वही है कि जो पहले था, वैसे ही मूल द्रव्य भी परिवर्तित हुश्रा ही करता है परन्तु उसके रूप वगैरह एकसरीखे होनेसे हम उस नखके समान भ्रमित बनते हैं कि यह वही सूलद्रव्य है। अर्थात् नखके समान ही मूलद्रव्यका भी नाश हो जाता है अतः मूलद्रव्यको स्थायी कैसे माना जाय ? इस कथनका उत्तर इस प्रकार है नखका उदाहरण सर्वथा असत्य है, इसलिये वह यहाँपर चरितार्थ ही नहीं हो सकता। क्योंकि यह यात सव ही जानते हैं कि
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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