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________________ १८६ जैन दर्शन जिस वस्तु उत्पत्ति, स्थिति और विनाश ये तीनों ही धर्म समाये हो वही वस्तु सद्रूप है और इसी लिये पहले यह कहा गया है कि प्रमाणका विषय अनन्तं धर्मवाली वस्तु है | * जो जो वस्तु सद्रूप हैं याने जो जो वस्तु अस्तित्व रखती हैं उन सबमें उत्पत्ति, स्थिति और विनांश ये तीनों ही धर्म होने चाहियें, तीनों धर्म हो तब ही वस्तुमात्र अस्तित्व रख सकती है, परन्तु इसके विना कदापि एक भी वस्तु विद्यमा, नता धारण करनेके योग्य नहीं हो सकती । जो वस्तु प्रथम सर्वथा अस्तित्व रहित हो, याने किसी भी कालमें किसी भी स्थान और किसी भी प्रकारसे जो वस्तु विद्यमान ही न होअर्थात् चन्या पुत्रके समान सर्वथा प्रसत् हो उसमें पछते विद्यमानता धारण करनेकी योग्यता याने सद्रूपता श्री नहीं सकती । यदि ऐसी वस्तु भी अस्तित्व रखनेकी योग्यता श्री सकती हो तो फिर खरगोशके सींग भी किसी समय अस्तित्व धारण करनेकी योग्यतावाले होने चाहियें, आकाशके कुसुममेंसे भी किसी समय सुगन्ध आनी चाहिये और वन्ध्या पुत्रका भी किसी न किसी समय विवाह होना चाहिये ! परन्तु ऐसा हुआ तो आजतक किसीने न तो कभी देखा है और न कभी सुना है । अतः सर्वथा विद्यमानता रहित वस्तुमें फिरसे विद्यमानता धारण करनेकी योग्यता आ नहीं सकती । जिस वस्तु विद्यमान रहनेका धर्म रहा हुआ ही है उस वस्तु में फिरसे उत्पाद वगैरहकी कल्पना करना उचित मालूम नहीं देता । यदि ऐसी वस्तु भी फिरसे उत्पाद वगैरहकी कल्पना की जाय तो फिर उसका कहीं पर भी अन्त न प्रायगा, अतः यहाँपर यह एक प्रश्न है कि जो उत्पाद वगैरह धर्म हैं वे किस प्रकारके पदार्थके मानने चाहियें ? क्या पहले असत् रहते हुए पदार्थके मानने चाहिये या सत् रहते हुये पदार्थके ? इस बातका उत्तर इस प्रकार दिया जाता है । यहाँपर जिन उत्पाद वगैरहको मालूम किया गया है वे किसी 4
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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