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________________ (५) सबमिलाकर लगभग तेरह अन्थ लिखे हैं जो आज मौर 'बृहट्टीकामें छह अधिकारों द्वारा छह दर्शनोंका स्पष्टीकरण किया गया है। प्रत्येक.अंधिकारके अंन्तम गुणरत्नसूरिने अपने और अपने गुरुके नाम सिवाय और कुछ विशेष नहीं लिखा। उन छह अधिकारोमसे इस ग्रन्थमें मात्र जैनदर्शनका अनुवाद किया गया है। इस ग्रन्थमें जैनदर्शनके सिद्धान्तोंका मण्डन सम्पूर्णतया और सम्यक् रीतिसे किया हुआ है । प्रारम्भमें श्वेताम्बर और दिगम्बर मुनियोंके वेष और आचारके सम्बन्धमें कुछ लिखा है, वल्कि वह काफी नहीं कहा जा सकता। बाद देवके बारेमें जो वर्णन किया है वह स्पष्ट और पूर्ण है। इस भागमें अंवतारकी मान्यताका खण्डन भी अच्छी तरहसे किया गया है । कर्तृवादी और अकर्तृवादी इन दोनोंके प्रश्नोत्तर रूपमें 'ईश्वरवाद' का जो विवेचन साधक बाधक दलालोंके द्वारा किया हुआ है वह शायद ही कहीं देखने में आयगा । सर्वज्ञवाद और कवलाहार वाद जैन और जैमिनी तथा दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दोनों में होने से उन मतवालों को मात्र इस वर्णनमें रस आवेगा । प्रात्मवाद नामके प्रकरणमें षड्दर्शनकारोंके मतके अनुसार आत्मतत्वका अस्तित्व सिद्ध किया गया है । वैसे ही पुद्गलादि पञ्चास्तिकायोंका वर्णन भी उत्तम शैली में किया हुआ है । पृथ्वी काय, अप् काय, तेज काय और वायुकाय तथा वनस्पतिमें जीवका अस्तित्व इस बातका विवेचन इतना सुगम और सप्रमाण किया हुआ है कि मानो इस सुधारके युगमें किसी सायन्सवेत्ताने ही वह बिलकुल आधुनिक शैलीसे लिखा है। आगे पुण्य, पाप, प्रास्त्रव, सम्बर, बन्ध, निर्जरा और मोक्ष इन तत्वोंका विवेचन भी पड्दर्शनकारोंके मतके अनुसार किया गया है । बाद स्त्रीमोक्षवादकी चर्चा की है। आगे जो प्रमाणवादका वर्णन है यद्यपि वह सामान्य वाचकोंके लिये बड़ा क्लिष्ट है, तथापि न्यायके अभ्यासियोंके लिये वह अवश्य ही पढ़ने योग्य है । सभी दर्शनकारोंको अनेकान्तवादका सहारा लेना पड़ता है यह बात
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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