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________________ .. (४) किया है। हरिभद्रसूरिके कालमें बौद्धोंका बहुत ही प्रावल्य था। हरिभद्रसूरिके भानजे और शिष्य हंसजीका खून चौद्धोंने अपने विहार में किया । इसले हरिभद्रसूरिजी इतने व्यथित हुए कि इस खूनके बाद अपने ग्रन्थों में अपना नाम 'विरह 'नामसे ही सुचित करते रहे। इसके पहिले वे 'याकिनी महत्तरासूनु 'नामसे अपने अन्य अङ्कित करते थे। हरिभद्रसूरि बहुत ही सहिप्णु थे। प्रतिवादियोंका उल्लेख करते समय भी वे बहुत ही प्रादरवाले शब्दोका उपयोग करते हैं । उनका मत उनके कथनानुसार ही. लिखते हैं न कि विकृत स्वरूपमें, जैसे कि आद्य शंकराचार्य जैसे वेदानुयायियोंने भी किया है। हरिभद्रसूरिजीकी सहिष्णुताले बारेमे पूज्यश्री जिनविजयजी लिखते हैं "भिन्न भिन्न मतोंके सिद्धान्तो की विवेचना करते समय, अपने विरोधी मतवाले विचारकों का भी गौरवपूर्वक नामोल्लेख करनेवाले और समभावपूर्वक मृदु और मधुर शब्दों द्वारा विचार मीमांसा करनेवाले ऐसे जो कोई विद्वान भारतीय साहित्यके इतिहासमें उल्लेख किये जाने योग्य हो तो उनमें हरिभद्रका नाम सबसे पहिले लिखने योग्य है।" (देखो, जैन साहित्यसंशोधक अंक १ पृष्ट २१) अस्तु । श्रीमद् हरिभद्रसारिजाके बारेमें जितना लिखा जाय उतना थोड़ा ही है। लेकिन इस प्रस्तावनामें ज्यादह लिखना मुस्किल है। जिन वाचकोंको विशेष जिज्ञासा हो वे इस पुस्तकके मूल मुजराती अन्यसे पंडित श्रीयुत वेचरदासजीकी प्रस्तावना देख लें । अव हम कुछ टीकाकारके वारेमें लिखते हैं। 'पड्दर्शन समुच्चय' पर चार टीकाएँ हैं। एक श्रीमणिभद्रसरि की नघुटीका और दूसरी गुणरत्नसूरिकी वृहट्टीका । आज ए दोनों टीकाएँ उपलब्ध हैं। तीसरी टीका श्रीविद्यातिलकसूरि उर्फ सोमतिलकसरि की है और चौथी टीकाके कर्ताका नाम 'अज्ञात है । जिस टीकाका अनुवाद इस पुस्तकमें किया हुआ है वह गुणरत्नसूरिकी है । यह टीकाकार वि. सम्वत् पंद्रहवीं शताब्दि में हुये हैं। उन्होंने स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखे हैं और पुराने प्रन्थों पर उससे भी चढ़ीबढ़ी टीकाएँ लिखी हैं । गुणरत्नसूरिने
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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