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________________ ११० जैन दर्शन धर्म है वैसे ही अवगाह गुण आकाशमै और पुद्गलादिमें भी है । अतः वह दोनोंका धर्म गिना जाना चाहिये इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है- यद्यपि अवगाह गुण आकाश और पुद्गलादि इन दोनोंमें है तथापि श्राकाशमें अवगाह मिलनेके कारण आकाश ही प्रधान है और पुद्गलादि श्राकाशमें अवगाह प्राप्त करनेवाले होनेके कारण अप्रधान हैं, अतः यहाँपर प्रधान श्राकाशके अवगाहधर्मको ही माना गया है और आकाशको ही श्रवगाहमें उपकारी गिना गया है । इस प्रकार श्रवगाह देनेमें उपकारी प्रकाशकी भी सिद्धि हो सकती है । यद्यपि आकाश आँखों या अन्य किसी इंद्रिय द्वारा देख नेमें नहीं श्राता तथापि फक्त उसके अवगाहगुणके कारण ही उसकी विद्यमानता मानी जा सकती है । शखका आवाज होनेमें शंखके समान मनुष्य और उसके हाथ एवं मुख, ये सब कारण रुप हैं तथापि मात्र प्रधानताके लिये उसमेंसे निकलता हुआ आवाज शंखका ही गिना जाता है । तथा यवका अंकूर ऊगनेमें 'यवके समान जमीन पानी और पवन ये सभी कारण हैं तथापि मात्र प्रधानता के लिये वह उगता हुआ अंकूर यवका ही कहा जाता है, वैसे ही अवगाहगुण आकाश और पुद्गलादि इन दोनोंमें होनेपर भी प्रधानताके लिये वह गुण आकाशका ही कहा जाता है और इसके द्वारा ही उसकी सिद्धि हो सकती है । वैशेषिक मतवाले कहते हैं कि शब्द यह आकाशका गुण हैं और आकाशकी निशानी भी यही है । परन्तु यह उनका कथन असत्य है क्योंकि आकाश और शब्दके बीचमें बड़ा भारी विरोध है । आकाश रूप, रस, गन्ध और स्पर्श रहित है और शब्द रूपरस, गन्ध और स्पर्शवाला है । इस प्रकार जिन दो वस्तुओं में परस्पर विरोध हो वे कदापि गुण और गुणी नहीं हो सकते । शब्दकी प्रतिध्वनि होती है और वह स्वयं भी दूसरे पुद्गलसे दव जाता है अतः शब्दमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श होना ही चाहिये और 'शब्द के ऐसा होने पर वह आकाशका गुण हो नहीं सकता । वस्तुमात्रमें जो प्रतिक्षण वर्तनेकी क्रिया हो रही है उसके द्वारा ही कालकी विद्यमानता मालूम हो सकती है । यह वर्तनेकी 1
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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