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________________ जीववाद १०९ ऐसी एक भी स्थिति नहीं कि जो अधर्मास्तिकायकी सहायता विना ही हो सकी हो या हो सकती हो । अर्थात् कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिलता कि जिसकी गति और स्थिति धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय चिना हो सकती हो। ऐसा होते हुये भी याने उस प्रका: रके उदाहरण विना ही कोई भी प्रामाणिक मनुष्य धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायका विरोध कैसे कर सकता है ? धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय किस किस प्रकारका उपकार करते हैं ? इस वातका खुलासा और युक्ति इस प्रकार है-तत्वार्थ सूत्रमें यह विषय बतलाया गया है कि " धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय गति तथा स्थितिमें सहाय करते हैं। और उनका उपकार भी यही है " जैसे कि जहाँ कहीं अच्छे सदावत मिलते हो वहाँ पर भिक्षुक लोगोंका रहनेका मन होता है, अर्थात् वे सदावत कुछ भिक्षुओका हाथ पकड़ कर उन्हें रहनेके लिये नहीं कहते, परन्तु वे सदावत भिक्षुओंके रहनेमे निमित्तरुप हैं वैसे ही गति और स्थिति में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय भी निमित्तरुप हैं । इस पातको पुष्टी करनेवाली बात इस प्रकार है, जैसे कि मत्स्यमें चलनेका सामर्थ्य है और चलनेकी इच्छा भी है परन्तु निमित्त कारण रुप पानी विना वह गति नहीं कर सकता, वैसे ही जड़ और चेतनमें चलनक्रिया करनेका सामर्थ्य है और इच्छा भी है तथापि निमित्त कारण विना उनकी गति और स्थिति हो नहीं सकती । उस गति और स्थिति में जो वस्तु निमित्तरूप होती है उसका नाम धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय है। आकाशतत्व वस्तुमात्रको अवकाश देता है, अर्थात् वह भी अव: काश देनेमे निमित्तरूप है और उसका स्वरूप भी अवकाश या अवगाह है। यदि यहाँ पर यह कहा जाय कि अवगाह गुण जैसे आकाशमें है वैसे ही पुद्गलादिमें भी है इसलिये उसे एकले आकाशका हीधर्म कैसे कहा जाय? जैले दो अंगुलियोका संयोग दोनों अंगुलियोका १ तत्वार्थ सूत्र पांचवे अध्यायका १७ वाँ सुत्र देखिए " " गति, स्थितिः उपत्रहो धर्माऽधर्मयोः उपकारः" ।
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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