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________________ ૨૮ जैन दर्शन पदार्थको जबरदस्ती स्थिति नहीं कराता । जिस तरह कुम्भ वननेमें 'कुम्भकार और चाक निमित्त कारण हैं वैसे ही पदार्थमात्रको स्थिति कराने में अधर्मास्तिकाय निमित्त कारण है । जिस प्रकार खेती करते हुये किसानको वर्षा सहाय करती है वैसे ही आकाश भी अवगाहकी त्वरावाले पदार्थको अवगाह देता है । वरसाद कोई खेती नहीं करता एवं किसानको जवरदस्ती करनेके लिये भी नहीं कहता वैसे ही आकाश भी अवगाहकी इच्छा न रखते हुये पदार्थको जबरदस्ती अवकाश नहीं देता । जैसे वगलीकी प्रसूतिमें मेघका गर्जारव निमित्तरूप है, जैसे संसारका त्याग करते पुरुषको त्याग सम्वन्धी उपदेश निमित्तरूप है वैसे ही आकाश भी अवगाह देने में निमित्तरूप है । धर्मास्तिकाय वगैरहकी प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं और इनके द्वारा ही उनकी विद्यमानता माननी यह युक्तियुक्त है । गतिमें सहाय करना यह धर्मास्तिकायका काम है और स्थितिमें सहाय करना यह अधर्मास्तिकायका कार्य है, किन्तु इन दोनों जगह सहाय करनेका कार्य श्रवगाहरूप आकाशका नहीं हो सकता-1 ये तीनों ही तत्व भिन्न हैं अतः इनके गुण भी भिन्न २ हैं । इन तत्वोंका विभिन्नत्व युक्तिद्वारा या शास्त्रद्वारा समझ लेना चाहिये । इस विषय में, शास्त्रमें इस प्रकार कहा है कि-" हे भगवन् ! द्रव्य कितने कहे हैं ? हे गौतम ! छह द्रव्य कहे हैं । वे जैसे कि धर्मा, स्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय-. जीवास्तिकाय, और अध्धा समय, याने काल 1 19 यदि कोई यों कहे कि पक्षी अधर ऊंचे उड़ता है, अग्निकी गति ऊंची होती है, और वायु भी तिरछी गति करता है, यह संव. कुछ स्वभावसे ही अनादि कालसे चला आता है, इसमें कुछ धर्मास्तिकायकी सहायता की आवश्यकता नहीं मालूम होती, परन्तु यह कथन यथार्थ नहीं है, क्योंकि जैन सिद्वान्तके अनुसार ऐसी एक भी गति नहीं कि जो धर्मास्तिकाय की सहायता विना ही हो सकती हो । पक्षी, अग्नि, या वायुकी गतिमें भी धर्मास्तिकायकी सहायता रही हुई है। इसी प्रकार · •
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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