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________________ जीववाद वैसी गति करनेवाला होनेसे वह वायुके साथ सम्बन्ध रखनेवाले विषयमें जरा भी विघ्नकारक नहीं हो सकता । इस प्रकार शस्त्रसे किसी तरहका आघात न पाया हुआ वायु सजीव है ऐसा समझना चाहिये। वनस्पतिको सजीव समझनेकी युक्तियें इस प्रकार हैं. १ जो जो स्वभाव मनुष्यके शरीरमें विद्यमान हैं वे ही स्वभाव वतस्पतिके शरीर में भी स्पष्ट रीतिसे मालूम होते हैं, इस लिये वनस्पतिको भी मनुष्यके समान ही सजीव मानना चाहिये। क्यों कि वनस्पति में रहे हुये मनुष्य शरीरके जैसे स्वभाव वनस्पति की सजीवता सिवाय सम्भवित नहीं हो सकते। जिस वनस्पतिमें जिस तरहका मनुष्य स्वभाव रहा हुआ है, वह इस प्रकार है-जिस तरह मनुष्यका शरीर बालक रुप, कुमार रुप, युवारूप और वृद्ध रूपसे देखनेमें आता है और वैसा दीखनेसे वह स्पष्टतया चेतनवाला माना जाता है वैसे ही वनस्पतिका देह भी इन चारों दशाओंका अनुभव करता है। जैसे कि केतकका वृक्ष बालरूप, तरुणरूप, और वृद्धरुपमे देखने में आता है अतः वह पुरुषके शरीरके समान अवस्थाओंका अनुभव करनेसे सचेतन है । तथा जिस तरह मनुष्यका शरीर निरन्तर भिन्न भिन्न अवस्था ओका अनुभव करता हुआ नियमित रीतिसे बढ़ा करता है वैसे ही अंकूर, किसलय, शाखा, प्रशाखा वगैरह अनेक अवस्थाओका अनुभव करता हुआ वनस्पति शरीर भी बढ़ा करता है, अतएव वह सचेतन है। तथा जैसे मनुष्यके शरीरमें ज्ञानका सम्बन्ध है त्यो वनस्पतिके शरीरमें भी ज्ञानका सम्बन्ध है। प्रपुन्नाट, सिद्धेसर, कासुन्दक, वथुला, एवं इमली वगैरह वनस्पति निद्रा लेकर जागृत होती हैं, अतएव उनमें ज्ञानकी विद्यमानता मालूम हो सकती है । उनमें मूर्छा भी रही हुई मालूम देती है। क्योंकि वे वृक्ष अपनी जड़ोंके नीचे धनके वर्तनको दवा रखते हैं या उस वर्तनको अपनी जड़ोंसे वेष्ठित कर लेते हैं । तथा वड़, पीपल, और नींव वगैरहके अंकूर चातुर्मासके मेघकी गजनासे और ढंण्डे वायुके स्पर्शसे जम निकलते हैं, याने इन वनस्पतियों में
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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