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________________ ८८ जैन दर्शन माननेमें किसी भी प्रकारका दोप नहीं। जैसे खद्योतके शरीरमें रहा हुआ प्रकाश जीववाला है वैसे ही अंगार वगैरहमें रहा हुआ प्रकाश भी जीवके संयोगसे ही उत्पन्न हुआ है। २ जैसे मनुष्यके शरीर में पाया हुआ ताप जीव संयोगी माना. जाता है वैसे ही अंगार वगैरहमें रहा हुआ ताप भी जीव संयोगी है ऐसा मानना चाहिये । सूर्य वगैरहका प्रकाश भी जीव संयोगी ही है अतः इस विषयमें भी किसी प्रकारका वाध नहीं आता। . ३ जिस प्रकार आहार लेनेके प्रमाणके कारण मनुष्यके शरी: रमें हानि और वृद्धि होती है वैसे ही उसी हेतुसे प्रकाशमें भी हानि और वृद्धि होनेके कारण उसे भी मनुष्यके शरीरके समान ही जीव'. संयोगी मानना चाहिये। इस प्रकार अन्य भी अनेक दलीलोसे अग्निमें जीव होनेकी वात शंका रहित सावित हो सकती है। ... वायुमें भी जीव है इस वातको सावित करनेवाले निम्नलिखित प्रमाण हैं १ जिस प्रकार किसी चमत्कारिक शक्तिके कारण देवका शरीर दृष्टिगोचर नहीं होता परन्तु वह चेतनवाला है एवं विद्या, मंत्र तथा . अंजन वगैरहके प्रभावसे किसी सिद्ध पुरुषका शरीर देखने में नहीं भाता परन्तु वह भी चेतनवाला है, इसी प्रकार वायुका शरीर नजरसे नहीं दीखता परन्तु पूर्वोक्त दोनों शरीरके समान वह भी चेतन वाला है ऐसा माननेमें किसी प्रकारकी हरकत नहीं पाती । जिस प्रकार परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण देखनेमें नहीं आता और जले हुए पाषाणका टुकड़ा गरम लगता है परन्तु उसमें ' अति नहीं देखने आता उसी प्रकार वायुमें रहा हुआ रूप अति सूक्ष्म होनेके कारण वह हमारी नजरसे देखनेमें नहीं आता। २ जिस प्रकार गाय एवं घोड़ा वगैरह तिर्यंच पशु अपने आप ही किसीकी प्रेरणाविना ही बाँके चूंके और चाहे उस तरफ अनियमित रीतिसे चलते हैं वैसे ही वायु भी किसीकी प्रेरणा विना ही वाँका का और चाहे उस तरफ अनियमिततासे चलनेवाला होनेके कारण जीव संयोगी है। यद्यपि जीव और पुग्दलकी गति अनुश्रेणि होनेसे परमाणु भी वक्र गति करता है, परन्तु वह नियमितरीत्या ही
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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