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________________ ( ४३ ) 'भवतः । वस्तुतस्तुकषाय (क्रोधादि) एव बंधकाररणं तस्यैव कर्मस्थितिकर्मफलशक्तिहेतुत्वात् । कषायाभावे तु एकादशादि-- गुरणस्थानेषु कर्मबंधाभावात् । तत्र हि केवलं योगनिमित्तकं कर्मास्त्रवति न च तत्रात्मना सह कर्म तिष्ठति फलं वा किंचित प्रददाति, अत एव स ईर्यापथ इत्युच्यते । प्रथमादिदशगुणस्थानेषु तु कषायसद्भावात् वास्तविको बंधः । अत एव स सापरायिक इत्युच्यते । संपरायः-कषायः अथवा संपरायः-संसारः, सपेरायः-पराभवो वा तत्प्रयोजनं कर्म साम्परायिकम् । ननु तत्त्वार्थे मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगानां बधहेतु. स्वमुक्त । द्रव्यसंग्रहादिषु च तेषां भावास्रवत्वम् । वस्तुतः एते स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध कपाय से होता है। निश्चय से तो क्रोधादि कषाय ही बन्ध का कारण है क्योंकि वही कर्मों में स्थिति पड़ने और कर्मों में विचित्र शक्ति प्रदान करने का कारण है । कषाय के न रहने पर ग्यारहने तया उससे आगे के गुणस्थानों में बंध नहीं होता। इन' गुणस्थानों में योग रहते के कारण कर्म आता तो है पर वह मात्मा के साथ बंध को प्राप्त नही होता और न कोई फल देता है इसीलिये वह ईपिथ माधव कहलाता है। प्रथम से दश गुणस्थान तक तो कपाय के सद्भाव से वास्तविक बध होता है और इसीलिए वह सापरायिक कहलाता है। सम्पराय अर्थात कपाय या संसार अथवा पराभव ( तिरस्कार ) है प्रयोजन जिमका उसे साम्परायिक कहते हैं। __ शंका:-तत्त्वार्थ सत्र में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय पार योग को वन्ध का कारण कहा है और द्रव्य संग्रहादि ग्रन्था मे उनको भावाश्रव कहा है। वास्तव में ये भावान है या बन्ध के कारण है ? इसके अलावा भी कही माग श्रा
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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