SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४२ ) शुभस्य नामफर्मणः, दर्शनविशुद्धयादयः षोडशभावनाः तीर्थकरस्वस्य, परनिदात्मप्रशंसादयः नीचगोत्रस्य, तद्विपर्ययो विनम्र वृत्त्युत्सेकाभावश्चोच्चगोत्रस्य,दानादिविघ्नकरणं चान्तरायस्यानवकारणम् । ___ बंध-तत्त्वम्ये न चेतनभावेन कर्म बध्यते स भावबंधः, द्रव्यवधस्तु कर्मात्मप्रदेशानां परस्परानुप्रवेशः । द्रव्यवंधस्य चत्वारा भेदाः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशाख्या: । तत्र प्रकृतिप्रदेशबंधी कायवाङ मनसा क्रियात्मका योगात्, स्थित्यनुभागौ तु कषायाद् ( तत्त्वों की दृढ प्रतीति ) देवायु के आश्रव का कारण है। मनोवाक्काय कौटिल्य अर्थात् मन में और, वचन में और, और करे कुछ और तथा अन्यथा प्रवृत्ति अर्थात् शास्त्र विरुद्ध क्रिया करने से अशुभ नाम कर्म का आश्रव होता है। मन बचन काय की सरलता तथा शास्त्र सम्मत प्रवृत्ति से शुभ नाम कर्म का आश्रव होता है । दर्शन विशुद्धि ( दोष रहित निर्मल सम्यक्त्व ) वगैरह मोलह कारण भावनाओं से तीथंकर प्रकृति का आश्रव होता है । पर की निंदा, खुद की प्रशसा आदि कारणो से नीच गोत्र का प्राश्रव होता है । स्व निंदा, पर प्रशंसा, विनम्र भाव और निरभिमानता उच्च गोत्र के आश्रव के कारण है। दान वगैरह में विघ्न करना अन्तराय कर्म के माधव का कारण है। बन्ध-तरम प्रात्मा के जिस चेतन भाव से कर्म बंधता है उसे भाव बन्ध कहते हैं और कर्म तथा पात्मा के प्रदेशों का एक दूसरे में मिल जाना सो द्रव्य वध है। द्रव्य वंध के प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध अनुभाग बन्ध और प्रदेश ये बन्ध चार भेद है। उनमें प्रकृति बन्धः और प्रदेश बन्ध मन नचन काय की क्रिया रूप योग से और
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy