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________________ (३२) गतिस्थितिपरिणतानां बलाधान कुर्वतः न तु स्वय प्रेरयत । आकाशद्रव्यम्--यस्मिन् सर्वे पदार्था. अवकाशमाप्नुवंति तदाकाशं । पाकाशं सर्वेषामाधारः धर्मादयश्चाधेया: । यदि धर्मादीनां लोकाकाशमाधारः आकाशस्य कः आधारः इति । आकाशस्य नास्ति कश्चनान्य आधारः तस्य स्वप्रतिष्टत्वात् । यद्या- । काश स्वप्रतिष्ठ धर्मादीन्यपि स्वप्रतिष्ठान्येव । अथ धर्मादीनामन्य आधार कल्प्यते आकाशस्याप्यन्य आधारः कल्प्यः, तथा सत्यनवस्थाप्रसगः इति चेन्नायं. दोपः, आकाशादत्यस्याधिकपरिमारणस्य द्रष्यस्याभावात् कुत्राकाशं तिष्ठेत् । सर्वतोऽनन्त कारण है ये दोनों द्रव्य चलने और ठहरने वालों को चलने और ठहरने में साधारण कारण होते है-स्वय कभी प्रेरणा नहीं करते। प्राकाश द्रव्य जिसमें सब द्रव्य स्थान पाते हैं अर्थात् जो चेतन अचेतन सम्पूर्ण द्रव्यों को रहने के लिए जगह दे उस आकाश कहते है। आकाश सम्पूर्ण द्रव्यों का आधार है और धर्मादिक द्रव्य आधेय है। यदि यह कहा जाय कि धर्मादि द्रव्यों का आधार आकाश है तो आकाश का अाधार क्या है तो उत्तर है कि आकाश का और कोई दूसरा आधार नहीं है; क्योंकि वह अपना आधार खुद ही है। अगर आकाश का आधार आकाश ही है तो धर्मादिक द्रव्यों का आधार भी वे स्वयं ही होगे। यदि, धर्मादि द्रव्यों का आधार दूसरे को माना जाता है तो आकाश का भी अन्य आधार मानना चाहिए और यदि ऐसा माना तो अवस्था दोप का प्रसंग होगा-ऐसा कहना ठीक नहीं; वहा अन्वस्था दोप नहीं आता । आकाश से बड़ा कोई द्रव्य नहीं है तव आकाश कहीं ठहरे। आकाश तो सब दिशाओं में अनन्त
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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