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________________ हि तत्, ततो धर्मादीनामधिकरणमाकाशमित्युच्यते । तदपि व्यवहारनयवशात् । एवंभूतनयापेक्षया तु सर्वाणि द्रव्यारिण स्वप्रतिष्ठान्येव । अत्राधाराधेयकल्पना साध्य फलं त्वेतावन्माअमेव यद्धर्मादीनि लोकाकाशाद् बहिः न संतीति । नन लोके पूर्वोत्तरकालभाविनामाधाराधेयभावोष्टः यथा कुण्डे बदरादीना । न तथाऽऽकाशं पूर्व धर्मादीनि चोत्तरकालभावीनि प्रतो न व्यवहारनयापेक्षयाऽपि आधाराधेयकल्पनोपपत्तिः । नैष दोषः युगपद्भाविनामप्याधाराधेयभावदर्शनात् यथा घटे रूपादयः शरीरे हस्तादयः । एतदाकाशं द्विविधं लोकाकाशमलोकाकाश च । यत्र धर्मादोनि द्रव्याणि लोक्यंते तल्लोकाकाशं ततो बहिः सर्वतोऽनंतम - - है और इसीलिए धर्मादि द्रव्यों का आधार आकाश को कहा है। और यह कहना भी व्यवहार नय की अपेक्षा से है। एवभूत नय की अपेक्षा तो सब द्रव्य स्वप्रतिष्ठ ही है अर्थात् अपने प्रदेशों में ही रहते हैं । यहा आधार प्राधेय कल्पना सिद्ध करना है और उसका मात्र इतना ही फल है कि धर्मादि द्रव्य लोकाकाश से बाहर नहीं है। शंका है.-ससार मे पहले और पीछे होने वालों मे प्राधार आधेय भाव देखा जाता है जैसे कून्डे मे वेरों का । उस तरह आकाश पहले वना हो और धर्मादिक बाद मे, ऐमा नहीं है। इसलिये व्यवहार नय की अपेक्षा भी इन द्रव्यो मे प्राधार आय कल्पना ठीक नहीं ठहरती । ऐसा तर्क भी ठीक नहीं। एक साथ पैदा होनेवालो में भी आधार प्राधेय भाव देखा जाता है, जैसे घट मे रूप रस वगैरह, शरीर में हाथ पांव वगैरह।। यह आकाश लोकाकाश और अलोकाकाश दो रूप मे विभाजित है। जहां धर्मादिक सब द्रव्य पाये जाते हैं वह लोका
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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