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________________ तायामनेकसर्वगतपदार्थपरिकल्पनानर्थक्यात् । कालादिकार्यारणामपि नभोनिमित्तकत्वोपपत्ते यदि कार्यविशेपात् कालादीना भिन्नत्वं तर्हि धर्मादीनामपि, सर्वथा विशेषाभावात् । ___यच्चोक्तमनुपलब्धेरिति तन्न, अन्यथा सर्वेपामनुपलब्धानामसिद्धिप्रसंगस्ततो धर्माधर्मद्रव्यास्तित्वसिद्धिः । इमे च धर्माधर्मद्रव्ये न पुण्यपापात्मके ततः सर्वथाभिन्नात्मकत्वात् । पुण्यपापं हि पौद्गलिकमिमे चापौद्गलिके निष्क्रिये च, इमं हि लोकाकाशे सर्वव्यापके । ननु धर्माधर्मयो निष्क्रियत्वात् जीवपुद्गलानां गतिहेतुत्वं नोपपद्यते, क्रियामतामेव जलादीना मत्स्यादीनां गतिहेतुत्वदर्शनात् । नैष दोषः बलाधाननिमित्तत्वात् । एते हि हो जायगी। तब तो आकाश ही काल वगैरह द्रव्यो के कार्य का भी निमित्त हो जायगा। यदि कार्य के भिन्न होने से कालादि पदार्थ भिन्न है तो धर्म, अधर्म भी भिन्न सिद्ध होगे क्योंकि उनके भी कार्य भिन्न भिन्न है। __और जो यह कहा गया कि धर्मादि द्रव्य दिखाई नही पडते प्रत उनका अस्तित्व नही-तब तो सम्पूर्ण ही अप्राप्त पदार्थों की सिद्धि न हो सकेगी, इसलिए धर्म तथा अधर्म द्रव्य का अस्तित्व सिद्ध है। ये धर्म और अधर्म द्रव्य पुण्य और पापरूप नही है । ये उन दोनों से बिलकुल भिन्न है। पुण्य और पाप तो पौद्गलिक है और ये निश्चय से पुद्गल की पर्याय रूप नही और ये दोनो क्रिया रहित है । निश्चय से ये दोनो द्रव्य लोकाकाश मे तिलों मे तेल की तरह सब जगह व्यापक हैं। यह शंका करना कि धर्म और अधर्म द्रव्य जब निष्क्रिय है तो जीव और पुद्गल के गति में सहायक नही हो सकते । क्रियाशील जल वगैरह ही मछलियो के गति मे सहायक होते देखे जाते है-ऐसा कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि ये दोनों उदासीन
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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