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________________ [ ७४ ] ननु एकत्वमेव प्रत्यभिज्ञा, सादृश्यज्ञानं तपमानमिति चेन्न । तथा तथा सति वैलक्षण्यज्ञानं किन्नाम प्रमाणं स्यात् । यथैवगो.' दर्शनाहितसंस्कारस्य गवयशिनोऽनेन समानः स इति प्रतिपत्तिः तथा महिष्यादिदशिनोऽनेन विलक्षणः स इति वैलक्षण्यप्रतीतिरप्यस्ति । तथा च प्रत्यभिज्ञानलक्षणाक्रान्तत्वेन पूर्वोक्तानां सर्वेषां प्रत्यभिज्ञानत्वमेव । । ' . तकस्य पृथक् प्रामाण्यसमर्थनम्-व्याप्तिज्ञानं तर्क । साध्यसाधन. योर्गम्यगमकभावप्रयोजको व्यभिचारगंधासहिष्णः सम्बन्धविशेपोव्याप्ति. । स एवाविनाभाव इत्यपि कथ्यते । अविनाभावा शका-एकत्व ज्ञान को तो प्रत्यभिज्ञान कहा जाना चाहिए पर सादृश्यज्ञान को तो उपमान कहा जाना ठीक होगा। समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं। ऐसा मानने पर तो विलक्षण ज्ञान को कौनसा प्रमाण कहना होगा। जिस प्रकार गाय के देखने से संस्कार ग्रहण करके गवय को देखने पर गाय के समान गवय है-ऐसा ज्ञान होता है, उसी प्रकार भैस वगैरह देखने वाले को यह गाय से विलक्षण है ऐसी विलक्षण प्रतिपत्ति भी होती है। इसलिए पहले वर्णन किए गए सभी में प्रत्यभिज्ञान का लक्षण घटने से मव के सब प्रत्यभिज्ञान है। / तर्क प्रमाण का समर्थन व्याप्ति के ज्ञान को तक कहते है । साध्य और साधन में गम्य गमक भाव को प्रदर्शित करने वाले और उसमे जरासा भी हेरफेर नही सहने वाले सम्बन्ध विशेप को व्याप्ति कहते हैं । वही अविनाभाव है ऐसा भी कहा जाता है। अविनाभाव अर्थात् साधन का साध्य के होने पर होना-प्रभाव में विलकुल नहीं होना । अधिनाभाव इस दुसरे नाम वाली इस व्याप्ति के
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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