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________________ ( ७५ } परनाम्या एतस्याः व्याप्तेः प्रमितौ यत् साधकतमं तदिदं तर्काख्यं प्रमाणं पृथगेव । प्रनेन हि साध्यसाधनसम्बन्धाज्ञाननिवृत्तिः क्रियते । अस्योदाहरणं तु यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राऽग्निरिति । तर्कों हीमां व्याप्ति सर्वदेशकालोपसंहारेण विषयी - करोति । यस्मिन् कस्मिश्चिद् देशे, यस्मिन् कस्मिश्चित् काले यावान् कश्चिद् धूमः सोऽग्निजन्मा भवति श्रनग्निजन्मा वा न भवतीत्येवंरूपः सर्वोपसंहारः । प्रत्यक्षस्य तु सन्निहित वर्तमानविषयत्वान्न व्याप्तिप्रकाशकत्वम् । ननु यद्यपि प्रत्यक्षमात्रं व्याप्तिविषयीकरणे समर्थ न भवति तथापि स्मरणप्रत्यभिज्ञान सहकृतः प्रत्यक्षविशेषस्ता विषयीकतु शवनुयादिति किं तर्कनाम्ना पृथकप्रमाणेनेति चेन्न । सहकारिशतसमवधानेऽपि प्रत्यक्षस्य विषयान्तरप्रवृत्ययोगात् । वस्तुतस्तु ज्ञान करने मे जो सर्वोत्कृष्ट साधक है - वह तर्क नाम का प्रमाण भिन्न ही है । निश्चय से इसके द्वारा साधन साध्य संबन्धी अज्ञान दूर किया जाता है। इसका उदाहरण जहां जहां धूवा है वहां वहां अग्नि है । इस व्याप्ति को तर्क सम्पूर्ण देश और सम्पूर्ण काल के लिए विषय करता है। जिस किसी देश में और जिस किसी भी काल मे जो कुछ धूवा है वह अग्नि से पैदा होती है, विना अग्नि के कभी नहीं होती, यह सर्वोपसंहार का का रूप है । प्रत्यक्ष तो व्याप्ति का प्रकाशक नही हो सकता क्योकि वह सन्निकट वर्तमान पदार्थ को ही विषय करता है । शका - यह सही है कि सिर्फ प्रत्यक्ष तो व्याप्ति के ज्ञान करने में समर्थ नही है तो भी स्मरण और प्रत्यभिज्ञान से युक्त प्रत्यक्ष विशेष तो व्याप्ति का ज्ञान कर ही सकता है तो फिर तर्क नामका अलग प्रमाण मानने की क्या श्रावश्यकता है ? समाधान - यह सही नहीं है। सौ सहकारी मिलने पर भी प्रत्यक्ष की विपयान्तर में प्रवृत्ति नहीं हो सकती । वास्तव मे
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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