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________________ [ ७३ | व्यतिरिक्त' ज्ञानमस्ति यत् प्रत्यभिज्ञानशब्दवाच्य भवेत् । नाव्यनयोरेकत्व, प्रत्यक्षानुमानयोरपि तत्प्रसङ्गात् । विशदेतररूपतया तयोर्भेदे स्मृतिप्रत्यक्षयोरपि भेदः स्यात् इत्येतत् सर्वं न युक्तिसंगतम् । स्मृतिप्रत्यक्षोत्पन्नस्य पूर्वोत्तरविवर्तवर्त्येकद्रव्यविषयस्थ सङ्कलनात्मकज्ञानस्यैकस्य प्रत्यभिज्ञानत्वेनानुभवसिद्धत्वात् । न खलु केवला स्मृतिरेव भूतवर्तमानपर्यायवर्तिद्रव्य सकलयितु समर्था, तस्या अतीतपर्यायमात्रविषयत्वात् । नापि प्रत्यक्ष, तस्य वर्तमानपर्यायमात्रगोचरत्वात् । • कथं च प्रत्यभिज्ञानास्वीकारेऽनुमानप्रवृत्तिः । पूर्वधूमसदृश - धूमदर्शनादग्नेरनुमान भवति । न च प्रत्यभिज्ञानं विना तेन सदृशोऽय धूम इति प्रतिपत्तिरस्ति । नहीं है जो प्रत्यभिज्ञान शब्द का वाच्य हो । इन दोनों का एकत्व हो नही सकता, यदि हो तो प्रत्यक्ष और अनुमान के भी एकत्व का प्रसंग होगा । विशद और अविशद होने से उनमें भेद माना जाय तो स्मृति और प्रत्यक्ष मे भी भेद होगा ? समाधान - यह सब कुछ तर्क सम्मत नही है । स्मृति और प्रत्यक्ष से पैदा हुए पूर्व और उत्तर पर्याय मे रहने वाले एक द्रव्य विषयक जोड रूप ज्ञान के प्रत्यभिज्ञान रूप से अनुभव सिद्ध होने के कारण यह शका निर्मूल है । वस्तुत. केवल स्मृति ही भूत और वर्तमान पर्याय मे रहने वाले द्रव्य को विषय नहीं कर सकती, क्योंकि उसका विषय तो भूत पर्याय मात्र है। और न प्रत्यक्ष एकत्व को विषय करता है, क्योकि उसका विषय मात्र वर्तमान पर्याय है । और प्रत्यभिज्ञान न मानने पर तो अनुमान की प्रवृत्ति भी कैसे होगी ? पहले की धूम के समान धूम के देखने से प्रग्नि का अनुमान होता है । और प्रत्यभिज्ञान के बिना यह घूम उसके समान है - ऐसा ज्ञान ही नही हो सकता ।
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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