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________________ [ ७२ । ननु प्रत्यभिज्ञायाः प्रत्यक्षप्रमाणरूपत्वात् परोक्षरूपतयाऽत्राभिधानमयुक्त, तथा हि प्रत्यक्षं प्रत्यभिज्ञा, इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधानात् तदन्यप्रत्यक्षवत; तन्त्र समीचीन, प्रत्यभिज्ञायामिन्द्रियान्वयव्यतिरेकानविधानस्यासिद्धः । अन्यथा प्रथमव्यक्ति दर्शनकालेऽपि अस्योत्पत्ति. स्यात् । न च स्मृतिसहायर्यामन्द्रिय प्रत्यभिज्ञान जनयतीति वाव्यं, प्रत्यक्षस्य स्मृतिनिरपेक्षत्वात् । तत्सापेक्षत्वेऽपूर्वार्थसाक्षात्कारित्वाभावः स्यात् । प्रत्यक्षं हीन्द्रियसम्बद्धमेवार्थ प्रकाशयति, प्रत्यभिज्ञानं तु पूर्वोत्तरविवर्तवस्यकत्वविषयम् । ननु स एवायमित्यादिप्रत्यभिज्ञानं नैक ज्ञान, स इत्युल्ले खस्य स्मृतिरूपत्वात्, अयमित्युल्ले खस्य च प्रत्यक्षत्वात् । नचाभ्यां __शंका-प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण रूप है अत. उसे यहां परोक्ष रूप कहना ठीक नहीं । जैसे कि-प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्ष है, इन्द्रियों के साथ अन्वय व्यतिरेक घटित होने से मौर प्रत्यक्षों की तरह। समाधान-यह ठीक नही-प्रत्यभिज्ञान का इन्द्रियों के साथ अन्वय व्यतिरेक घटित नही होता। नहीं तो पहले पहल व्यक्ति को देखने के समय भी प्रत्यभिज्ञान की उत्पत्ति होनी चाहिए। स्मृति की सहायता प्राप्त इन्द्रिय, प्रत्यभिज्ञान को पैदा करेगी यह कहना भी ठीक नही, क्योकि प्रत्यक्ष को स्मृति की अपेक्षा नहीं होती। यदि प्रत्यक्ष भी स्मृति की अपेक्षा करे तो वह अपूर्व अर्थ का साक्षात्कार करने वाला नही होगा। प्रत्यक्ष तो इन्द्रियों से सम्बन्धित पदार्थ को ही प्रकाशित करता है परन्तु प्रत्यभिज्ञान का विषय तो पूर्व और उत्तर पर्याय मे रहने वाला एकत्व है। शंका-यह वही है-इस तरह का जो प्रत्यभिज्ञान है वह एक ज्ञान नही है। वह यह उल्लेख तो स्मृति का विषय है, यह उल्लेख प्रत्यक्ष का विषय है । इन दोनों से अलग कोई ज्ञान
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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