SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ७१ ) क्रियेत तर्हि तदधीन: निखिलोऽपि लोकव्यवहारोऽविश्वसनीयः स्यात् । स्मृतेरप्रामाण्ये ' तु अनुमानवार्ताऽपि दुर्लभा। तया व्याप्तेरविषयीकरणे तदुत्थानायोगात् । तत्तोनुमानस्य प्रामाण्यं स्वीकुर्वद्भिः स्मृतेरवश्यमेव प्रामाण्यमङ्गीकर्तव्यमिति । प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यसमर्थन-दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानं । तदनेकविघं एकत्वसादृश्यवसादृश्यप्रतियोग्यादिभेदात् । तदेवेदमितिएकत्वप्रत्यभिज्ञान, तथा स एवायं देवदत्तः । तत्सदृशमिति सादृश्यप्रत्यभिज्ञान यथा गोसदृशो गवयः । तद्विलक्षणमिति वैसादृश्यप्रत्यभिज्ञानं, यथा गोविलक्षणो महिषः । तत्प्रतियोगीति तुलनाप्रत्यभिज्ञावं, यथा इदमस्माद् दूरमिति । जाय तो स्मृति के द्वारा होने वाला सारा लोकव्यवहार विश्वास के योग्य नहीं रहेगा। और स्मृति के अप्रमाण हो जाने पर तो अनुमान भी प्रमाणभूत नहीं ठहरेगा। व्याप्ति के स्मरण किए बिना अनुमान का उदय ही नहीं हो सकता। इसलिए अगर अनुमान को प्रमाण माना जाता है तो स्मृति को भी अवश्य ही प्रमरण स्वीकार करना चाहिए । v प्रत्यभिज्ञान की प्रमाणता की सिद्धि- वर्तमान मे पदार्थ का दर्शन और पूर्व मे देखे हुये का स्मरण दोनों के संकलन से उत्पन्न होने वाला अनुसन्धान रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान कहलाता है। वह एकत्व, साहण्य, वैसादृश्य, प्रतियोगी आदि अनेक प्रकार का है । यह वही है-यह एकत्व प्रत्यभिज्ञान है जैसे यह वही देवदत्त है । यह उसके समान है-यह सादृश्य प्रत्यभिज्ञान है, जैसे गाय सरीखा गवय होता है । यह उसके समान नही है-यह सादृश्य प्रत्यभिज्ञान है जैसे गाय से विलक्षण भैस होती है। यह इससे दूर है-वह प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञान है जैसे जयपुर से देहली दूर है।
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy