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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा हेतु -- क्योकि उत्तर भाद्रपदा का उदय नहीं है। यह उत्तर भाद्रपदा के उत्तरवर्ती उदय के प्रभाव के द्वारा पूर्व भाद्रपदा के पूर्ववर्ती उदय का प्रतिषेध है । [ ७१ (७) विरुद्ध सहचर अनुपलब्धि :- . साध्य-- इसे सम्यग् ज्ञान प्राप्त नहीं है । हेतु — क्योंकि सम्यग् दर्शन नहीं है। सम्यग् ज्ञान और सम्यग् दर्शन दोनो नियत सहचारी हैं। इसलिए यह एक के अभाव में दूसरे का प्रतिषेध है । विधि-साधक अनुपलब्धि हेतु साध्य के विरुद्ध रूप की उपलब्धि न होने के कारण जो हेतु उसकी सत्ता को सिद्ध करता है, वह विरुद्धानुपलब्धि कहलाता है । विरुद्धानुपलब्धि हेतु के पांच प्रकार हैं :-- (१) विरुद्ध कार्य - अनुपलब्धि : साध्य -- इसके शरीर में रोग है । हेतु — क्योंकि स्वस्थ प्रवृत्तियां नहीं मिल रहीं हैं। स्वस्थ प्रवृत्तियो का भाव रोग विरोधी कार्य है। उसकी यहाँ अनुपलब्धि है । (२) विरुद्ध - कारण - अनुपलब्धि : साध्य - यह मनुष्य कष्ट में फसा हुआ है । हेतु —— क्योकि इसे इष्ट का सयोग नही मिल रहा है । कष्ट के भाव का विरोधी कारण इष्ट सयोग है, वह यहाँ अनुपलब्ध है । (३) विरुद्ध स्वभाव - अनुपलब्धि : साध्य -- वस्तु समूह अनेकान्तात्मक है । हेतु — क्योंकि एकान्त स्वभाव ही अनुपलब्धि है । (४) विरुद्ध व्यापक - अनुपलब्धि : माध्य -यहाँ छाया है 1 हेतु क्योकि उष्णता नही है । (५) विरुद्ध - सहचर अनुपलब्धि : साध्य - इसे मिथ्या ज्ञान प्राप्त है ।हेतु - क्योकि इसे सभ्युग दर्शन प्राप्त नहीं हैं।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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