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________________ ४६] जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा 'सत्ता है' का वोध जाग उठता है । प्रमाता इसे जान नहीं पाता । इसमें विशेष धर्म का बोध नही होता, इसलिए प्रमाण नहीं कहा जा सकता | फिर भी यह उत्तर भावी अवग्रही प्रमाण का परिणामी कारण है । इसके बाद स्पर्शन, रसन, प्राण और श्रोत्र का ध्यञ्जन-अवग्रह होता है। 'व्यञ्जन' के तीन अर्थ है(१) शब्द आदि पुद्गल द्रव्य (२) उपकरण-इन्द्रिय-विषय-ग्राहक इन्द्रिय (३) विषय और उपकरण इन्द्रिय का संयोग | व्यञ्जन-अवग्रह अव्यक्त शान होता है १२१ प्रमाता अव भी नहीं जानता। इसके बाद होता है-अर्थ का अवग्रह। (अर्थ शब्द के दो अर्थ होते हैं (२) द्रव्य (सामान्य)(२) पर्याय (विशेष)। अवग्रह आदि पर्याय के द्वारा द्रव्य को ग्रहण करते हैं, पूर्ण द्रव्य को नहीं जान सकते । इन्द्रियां अपने-अपने विषयभूत वस्तु पर्यायों को जानती हैं और मन भी एक साथ नियत अंश का ही विचार करता है। अर्थावग्रह व्यञ्जनावग्रह से कुछ व्यक्त होता है, जैसे—'यह कुछ है-यह सामान्य अर्थ का ज्ञान है। सामान्य का निर्देश हो सकता है (कहा जा सकता है) जैसे-वन, सेना, नगर आदि-आदि । अर्थावग्रह का विषय अनिर्देश्य-सामान्य होता है-किसी भी शब्द के द्वारा कहा नही जा सके, वैसा होता है । तात्पर्य यह है कि अर्थावग्रह के द्वारा अर्थ के अनिर्देश्य सामान्यरूम का ज्ञान होता है। दर्शन के द्वारा 'सत्ता है' का बोध होता है। अर्थावग्रह के द्वारा 'वस्तु है' का ज्ञान होता है । सत्ता से यह ज्ञान सिर्फ इतना सा आगे बढ़ता है। इसमें अर्थ के स्वरूप, नाम, जाति, क्रिया, गुण, द्रव्य आदि की । कल्पना के अन्तर्गत शाब्दिक प्रतीति नहीं होती १३ अर्थावग्रह से ज्ञात अर्थ का स्वरूप क्या है, नाम क्या है, वह किस जाति का है, उसकी क्रिया क्या है, गुण क्या है, कौन सा द्रव्य है, यह नहीं जाने जाते । इन्हे जाने विना (स्वल्प आदि की कल्पना के विना) अर्थ-सामान्य का निर्देश भी नहीं किया जा सकता। उक्त स्वरूप के आधार पर इसकी यह परिभाषा वनती है-"अनिर्देश्यसामान्य अर्थ को जानने वाला शान अर्थावग्रह होता है। प्रश्न हो सकता है कि अनध्यवसाय और अर्थावग्रह दोनो सामान्यग्राही हैं तब एक को अप्रमाण और दूसरे को प्रमाण क्वो माना जाए? उत्तर साफ है।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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