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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा [४५ विशेष व्याप्य । धर्मी अनेक धमों का, अवयवी अनेक अवयवो का, समष्टि अनेक व्यक्तियो का पिण्ड होता है।) एकता का रूप स्थूल और स्पष्ट होता है, इसलिए हमारा स्थूल ज्ञान पहले उसी को पकड़ता है। अनेकता का स्म सूक्ष्म और अस्पष्ट होता है, इसलिए उसे जानने के लिए विशेष मनोयोग लगाना पड़ता है। फिर क्रमशः पदार्थ के विविध पहलुत्रो का निश्चय होता है। निश्चय की तीन सीमाएं हैं :-' (१)श्य वस्तु का सत्तात्मक निश्चय-अर्थमात्र-महण । (२) आलोचनात्मक निश्चय-स्वरूप-विमर्श । (३) अपायात्मक निश्चय--स्वरूप-निर्णय । इनकी पृष्ठभूमि में दो वा अपेक्षित हैं : (१) इन्द्रियों और पदार्थ का उचित स्थान में योग (सन्निकष या मामीप्य)। (२) दर्शन-निर्विकल्प-बोध, मामान्य मात्र (सत्तामात्र) का ग्रहण । पूरा क्रम यो वनता है : (१) इन्द्रिय और अर्थ का उचित योग-शब्द और श्रोत्र का सन्निकर्प (उसके बाद) (२) निर्विकल्प बोघ द्वारा सत्ता मात्र का ज्ञान । जैसे-'है'..। (उसके वाद) (३) ग्राह्य वस्तु का सत्तात्मक निश्चय । जैसे-'यह वस्तु है । (उसके बाद) (v) आलोचनात्मक निश्चय । जैसे-'यह शब्द होना चाहिए। (उसके वाद) (५) अपायात्मक निश्चय। जैसे-'यह शब्द ही है । यहाँ निश्चय की पूर्णता होती है । ( उसके वाद) (६) निश्चय की धारणा। जैसे-'तद्रूप शब्द ही होता है'। यहाँ व्यवहार प्रत्यक्ष समाप्त हो जाता है। अवग्रह अवग्रह का अर्थ है पहला जान । इन्द्रिय और वस्तु का सम्बन्ध होते ही
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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