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________________ प्रज्ञापना अर्थ के सम्यक् निर्णयन के लिए न्याय शास्त्र की अपनी उपयोगिता है। जैन दर्शन का न्याय भाग अत्यन्त समृद्ध एवं उन्नत रहा है । बीजरूप मे इसकी परम्परा उतनी ही प्राचीन है, जितना जैन वाङ्मय का शाश्वत स्रोत । स्वतन्त्र शास्त्र के रूप में उत्तरवर्ती काल मे यह विस्तृत विकास पाता रहा है। जैन दर्शन के यथावत् अनुशीलन के लिए उसके न्याय माग अववा प्रमाणविश्लेपण को जानना अति आवश्यक है। महान् द्रष्टा, जनवन्ध आचार्यश्री तुलसी के अन्तेवासी मुनि श्री नथमलजी द्वारा रचे 'जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व' से गृहीत 'जैन दर्शन में प्रमाण-मीमासा' नामक यह पुस्तक जैन न्याय-शास्त्र पर हिन्दी माषा में अपनी कोटि की अनूठी रचना है। न्याय-शास्त्र की उपयोगिता, जैन न्याय का उद्गम और विकास, प्रमाण का स्वरूप, वाक्-प्रयोग, सप्त भंगी, नय, निक्षेप, कार्यकारणवाद प्रभृति अनेक महत्त्वपूर्ण विषयो का मुनिश्री ने इसमे सागोपाग विवेचन किया है। न्याय या तर्क जैसे जटिल और क्लिष्ट विषय को उन्होंने प्राञ्जल एवं प्रसादपूर्ण शब्दावली मे रखने का जो प्रयास किया है, उससे इस दुरूह विषय को हृदयसात् करने मे पाठको को बड़ा सौविध्य रहेगा। श्री तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह के अमिनन्दन मे इस पुस्तक के प्रकाशन का दायित्व सेठ मन्नालालजी सुराना मेमोरियल ट्रस्ट, कलकत्ता ने स्वीकार किया, यह अत्यन्त हर्ष का विषय है। तेरापन्थ का प्रसार, तत्सम्बन्धी साहित्य का प्रकाशन, अणुव्रत आन्दोलन का जन-जन में संचार ट्रस्ट के उद्देश्यों में से मुख्य हैं। इस पुस्तक के प्रकाशन द्वारा अपनी उद्देश्य-पूर्ति का जो महत्त्वपूर्ण कदम ट्रस्ट ने उठाया है, वह सर्वथा अभिनन्दनीय है।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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