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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [२२७ स्यादस्तीति सकलवस्तुग्राहकत्वात् प्रमाणवावयम्, स्यावस्त्येव द्रव्यमिति वस्त्वेकदेशग्राहकत्वान्नयवाक्यम् ॥ -पंचा० टी० पृ० ३२ (ख) पूर्व पंचास्तिकाये स्यादस्तीत्यादि प्रमाणवाक्येन प्रमाण सप्तमंगी व्याख्याता, अत्र तु स्यादस्त्येव यदेवकारग्रहणं तन्नय मतभगी ज्ञापनार्थमिति भावार्थः।--प्रव० टी० पृ०१६२ ४५-वि० मा० गाथा-२२३२ १६-अने० पृ० ३१ ४७-(क) सन्म० पृ० ३१८ (ख) अने० पृ० ५५ ४८-नित्यं सत्वमसत्वं वा, हैतोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातो हि भावानां, कादाचित्कत्वसभवः ॥ ४- सोस्ति प्रत्ययो लोके, याशब्दानुगमदृते । अनुविधमिवज्ञान, सर्व शब्देन भाषते ।"वा०प्र० १२४ ५०-तत्त्वा० श्लोक-२३६-४० ५१-स्था० ७३१५४२ आठ: १-भिन्नु न्या० ५-२२ २-भिक्षु न्या० ५-२३ ३-भिनु न्या० ५२३ ४-मित्तु न्या० ५।२४। ५-भिन्तु न्या० ५२५ ६-भिन्नु न्या० ५।२७। ७-आगम सव्व निसेहे, नो सद्दी अहव देस पडिलेहे "नो शब्द" के दो अर्थ होते है-सर्व-निषेध और देश-निरोध । यहाँ वो शब्द दोनों प्रकार के निषेध के अर्थ में प्रगुन होता है।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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