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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [१७१ नय के विषय का अल्प-बहुत्व ये सातो दृष्टियाँ परस्पर सापेक्ष हैं। एक ही वस्तु के विभिन्न रूपों को विविध रूप से ग्रहण करने वाली हैं। इनका चिन्तन क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म की और आगे बढ़ता है, इसलिए इनका विषय क्रमशः भूयस् से अल्प होता चलता है। (नगम संकल्पग्राही है। संकल्प सत् और असत् दोनो का होता है, इसलिए भाव और अभाव---ये दोनो इसके गोचर बनते हैं। संग्रह का विषय इससे थोड़ा है, केवल सत्ता मात्र है। ज्यवहार का विषय, सत्ता का एक अंश-मेद है। जुसूत्र का विषय भेद का चरम अंश-वर्तमान क्षण है, जब कि व्यवहार का त्रिकालवी वस्तु है। शब्द का विषय काल आदि के मेद से भिन्न वस्तु है, जब कि ऋजसूत्र काल आदि का भेद होने पर भी वस्तु को अभिन्न मानता है। (सममिरूढ़ का विषय व्युत्पत्ति के अनुसार प्रत्येक पर्यायवाची शब्द का भिन्न अर्थ है, जब कि शब्दनय व्युत्पत्ति मेद होने पर भी पर्यायवाची शब्दो का एक अर्थ मानता है। एवम्भूत का विषय क्रिया-भेद के अनुसार भिन्न अर्थ है, जब कि समभिरूढ़ क्रिया-मैद होने पर मी अर्थ को अभिन्न स्वीकार करता है। इस प्रकार क्रमशः इनका विषय परिमित होता गया है। पूर्ववतों नय उत्तरवर्ती नय के गृहीत अंश को लेता है, इसलिए पहला नय कारण और दूसरा नय कार्य बन जाता है। नय की शब्द योजना • प्रमाणवाक्य और नयवाक्य के साथ स्यात् शब्द का प्रयोग करने में सभी आचार्य एक मत नहीं हैं। आचार्य अकलंक ने दोनो जगह "स्यात्" शब्द जोड़ा है. ---"स्यात जीव एवं" और "स्यात् अस्त्येव जीव ।” पहला प्रमाण वाक्य है, दूसरा नयवाक्य । पहले में अनन्त-धर्मात्मक जीव का बोध होता है, पूसरे में प्रधानतया जीव के अस्तित्वधर्म का। पहले में 'एक्कार' धमीं के पाचकं के साथ जुड़ता है, दूसरे में प्रेम के सचा के साथ।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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