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________________ १७०] जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा क्रिया में अप्रवृत्त शब्द को उसका वाचक मानता है-वाच्य और वाचक के प्रयोग को त्रैकालिक मानता है किन्तु यह केवल वाच्य-वाचक के प्रयोग को वर्तमान काल में ही स्वीकार करता है। क्रिया हो चुकने पर और क्रिया की संभाव्यता पर अमुक अर्थ का अमुक वाचक है-ऐसा हो नहीं सकता। फलित रूप में सात नयो के विषय इस प्रकार वनते हैं :(१)नगम......अर्थ का अभेद और भेद और दोनो। (२) संग्रह ......अमेद। (क) परसंग्रह..... चरम-अभेद । (ख) अपरसंग्रह... अवान्तर-अभेद । (३) व्यवहार..... भेद-अवान्तर-भेद (४) अनुसूत्र......चरम भेद। (५) शब्द.. ..... भेद। (६) सममिरूढ़ . मेद । (७) एवम्भूत..... मेद । ___ इनमें एक अभेददृष्टि है, भेद दृष्टियां पांच-है और एक दृष्टि संयुक्त है। संयुक्त दृष्टि इस बात की सूचक है कि अभेद में ही भेद और भेद में ही अभेद है। ये दोनो सर्वथा दो या सर्वथा एक या अभेद तात्त्विक और भेद काल्पनिक अथवा भेद तात्विक और अमेद काल्पनिक, यू नहीं होता। जैन दर्शन को अभेद मान्य है किन्तु भेद के अभाव में नहीं। चेतन और अचेतन (अात्मा और पुद्गल ) दोनो पदार्थ सत् है, इसलिए एक है-अभिन्न हैं। दोनों में स्वभाव-भेद है, इसलिए वे अनेक है-भिन्न हैं। यथार्थ यह है कि अभेद और भेद दोनो तात्त्विक है। कारण यह हे-भेद शून्य अभेद में अर्थक्रिया नही होती- अर्थ की क्रिया विशेष दशा में होती है और अमेद शुन्य भेद में भी अर्थक्रिया नहीं होती कारण और कार्य का सम्बन्ध नहीं जुड़ता। पूर्व क्षण उत्तर-क्षण का कारण तभी बन सकता है जब कि दोनी में एक अन्वयी माना जाए (एक ध्रुव या अभेदांश माना जाए)। इसलिए जैन दर्शन अमेदाश्रितभेट ओर भेगभित-अभेद को स्वीकार करता है।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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