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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मोमासा [१६७ माना, तब ऋजुसून अलग क्यो ? संग्रह के अपर और पर--ये दो भेद हुए, वैसे ही व्यवहार के भी दा भेद हा जाते-अपर-व्यवहार और पर-व्यवहार । इस प्रश्न का समाधान ढूंढने के लिए चलते हैं, तव हमें दूसरी दृष्टि का त्रालोक अपने आप मिल जाता है। अर्थ का अन्तिम मंद परमाणु या प्रदेश है। उस तक व्यवहारनय चलता है। चरम भेद का अर्थ होता हैवर्तमानकालीन अर्थ-पर्याय-क्षणमात्रस्थायी पर्याय। पर्याय पर्यायार्थिक नय का विषय बनता है। व्यवहार ठहरा द्रव्याथिक । द्रव्यार्थिक दृष्टि के सामने पर्याय गौण होती है, इनलिए पर्याय उसका विषय नही वनती। यही कारण है कि व्यवहार से ऋजसूत्र को स्वतन्त्र मानना पड़ा। नय के विषय-विभाग पर दृष्टि डालिए, यह अपने आप स्पष्ट हो जाएगा द्रव्यार्थिक नय तीन हैं।-(१) नैगम (२) संग्रह (३) व्यवहार । अनुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत-ये चार पर्यायार्थिक नय है। जुसूत्र द्रव्य-पर्यायाथिक विभाग में जहाँ पयार्याथिक में जाता है, वहाँ अर्थ शब्द विभाग में अर्थ नय में रहता है। व्यवहार दोनो जगह एक कोटिक है। दो पम्पराएं द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक के विमाग में दो पम्पराए बनती है, एक सैद्धान्तिको की ओर दूसरी तार्किको की। सैद्धान्तिक परम्परा के अग्रणी "जिनभद्गणी" क्षमाश्रमण हैं। उनके अनुसार पहले चार नय द्रव्यार्थिक है और शेष तीन पर्यायार्थिक। दूसरी परम्परा के प्रमुख है "सिद्धसेन"। उनके अनुसार पहले तीन नय द्रव्यार्थिक है और शेप चार पर्यायार्थिकः । (सैद्धान्तिक ऋजुसूत्र को द्रव्यार्थिक मानते हैं।) उसका आधार अनुयोग द्वार का निम्न सूत्र है। "उज्जुसुअस्स एगो अणुवउत्तो आगमती एग दवावस्सय पुहुत्त नेच्छइ इसका भाव यह है ऋजुसूत्र की दृष्टि मे उपयोग-शून्य व्यक्ति द्रव्यावश्यक है। सैद्धान्तिक परम्परा का मत यह है कि यदि ऋजुसूत्र को द्रव्यग्राही न माना जाए तो उक्त सूत्र में विरोध आयेगा ।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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