SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६०] जैन दर्शन में प्रमाण मोमासो (१) शुद्धल्प है—अन्त्यस्वल्प-ज्यावृत्ति। (२) अशुद्धल्प है-अवान्तर-विशेष । संग्रह समन्वय की दृष्टि है और व्यवहार विभाजन की। ये दोनों दृष्टियाँ समानान्तर रेखा पर चलने वाली हैं किन्तु इनका गति-क्रम विपरीत है। संग्रह-दृष्टि सिमटती चलती है, चलते-चलते एक हो जाती है। व्यवहार दृष्टि खुलती चलती है-चलते-चलते अनन्त हो जाती है। सिद्ध संसारी अयोगी सयोगी (१५ गुणस्थान) । बली छात्य क्षीप मोह उपशान्त मोह अकषापी (११ गुन०) सत्यापी भद-प्रधान ....................ध्ययहारम्नय श्रभेद-प्रधान.................सग्रह-नय सूक्ष्म कमायो वार कषायी श्रेणी प्रतिपन्न श्रेपी पतिपत्र (गुरा) सम्पत्ती निवाली मष्य प्रन्यिमेटी
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy