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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा १४३ - श्रद्धा और तर्क परस्पर सापेक्ष हैं, यही नय रहस्य है। इस प्रकार पदार्थ का प्रत्येक पहलू अपेक्षापूर्वक समझा जाए तो दुराग्रह की गति सहज शिथिल हो जाती है। समन्वय के दो स्तम्भ समन्वय फेवल वास्तविक दृष्टि से ही नहीं किया जाता। निश्चय और व्यवहार दोनी उसके स्तम्भ बनते हैं। व्यवहार वस्तु शरीरगत सत्य होता है और निश्चय वस्तु आत्मगत सत्य | ये दोनो मिलकर सत्य को पूर्ण बनाते हैं। (निश्चय नय वस्तु स्थिति जानने के लिए है। व्यवहार नय वस्तु के स्थूल रूप में होने वाली आग्रह-बुद्धि को मिटाता है ।) वस्तु के स्थूलरूप, जो इन्द्रिय-प्रत्यक्ष होता है, को ही अन्तिम सत्य मानकर न चलं, यही समन्वय की दृष्टि है। पदार्थ एक रूप में पूर्ण नहीं होता। वह स्वरूप से सत्तात्मक पररूप से असत्तात्मक होकर पूर्ण होता है। केवल सत्तात्मक या केवल असत्तात्मक रूप में कोई पदार्थ पूर्ण नहीं होता। सर्वसत्तात्मक या सर्व-अ-सत्तात्मक जैसा कोई पदार्थ है ही नहीं । पदार्थ की यह स्थिति है, तब नय निरपेक्ष बनकर उसका प्रतिपादन कैसे कर सकते हैं ? इसका अर्थ यह नहीं होता कि नय हमे पूर्ण सत्य तक ले नही जाते। वे ले जाते अवश्य हैं किन्तु सब मिलकर एक नय पूर्ण सत्य का एक अरा होता है। वह अन्य नय सापेक्ष रहकर सत्यांश का प्रतिपादक वनता है। नय या सवाद एक धर्म का सापेक्ष प्रतिपादन करने वाला नय वाक्य-सद्वाद। २-रक धर्म का निरपेक्ष प्रतिपादन करने वाला वाक्य-दुर्नय । अनुयोग द्वार में चार प्रमाण वतलाए हैं - (१) द्रव्य-प्रमाण । (२) क्षेत्र प्रमाण । (३) काल-प्रमाण। (४) भाव-प्रमाण । भाव-प्रमाण के तीन भेद होते हैं :(१) गुण-प्रमाण ।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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