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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा (१२३ एक विद्यार्थी में योग्यता, अयोग्यता, सक्रियता और निष्क्रियता-ये चार धर्म मान सात भंगों की परीक्षा करने पर इनकी व्यावहारिकता का पता लग सकेगा। इनमें दो गुण सदभाव रूप हैं और दो उनके प्रतियोगी। किसी व्यक्ति ने अध्यापक से पूछा-"अमुक विद्यार्थी पढने में कैसा है ?" अध्यापक ने कहा-"वड़ा योग्य है।" (१) यहाँ पढ़ाई की अपेक्षा से उसका योग्यता धर्म मुख्य बन गया और शेष सब धर्म उसके अन्दर छिप गए-गौण वन गए। दुसरे ने पूछा-"विद्यार्थी नम्रता में कैसा है " अध्यापक ने कहा-"बड़ा अयोग्य है।" (२) यहॉ उद्दण्डता की अपेक्षा से उसका अयोग्यता धर्म मुख्य वन गया और शेष सब धर्म गौण बन गए ? किसी तीसरे व्यक्ति ने पूछा-"वह पढ़ने में और विनय-व्यवहार में कैसा है ? अध्यापक ने कहा-"क्या कहे यह बड़ा विचित्र है। इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।" (३) यह विचार उस समय निकलता है, जब उसकी पढ़ाई और उच्छृखलता, ये दोनों एक साथ मुख्य बन दृष्टि के सामने नाचने लग जाती हैं। और कमी-कमी यू मी उत्तर होता है "भाई अच्छा ही है, पढने में योग्य है किन्तु वैसे व्यवहार में योग्य नहीं।" ___ पांचवां उत्तर-"योग्य है फिर भी बड़ा विचित्र है, उसके बारे में कुछ कहा नही जा सकता।" छठा उत्तर-"योग्य नहीं है फिर भी बड़ा विचित्र है, उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।" सातवां उत्तर-"योग्य भी है, नहीं भी-अरे क्या पूछते हो बड़ा विचित्र लड़का है, उसके बारे में कुछ कहा नही जा सकता।" उत्तर देने वाले की भिन्न-भिन्न मनः स्थितिया होती है। कभी उसके सामने योग्यता की दृष्टि प्रधान हो जाती है और कभी अयोग्यता की। कभी एक साथ दोनों और कभी क्रमशः कमी योग्यता का बखान होते-होते
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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