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________________ १२२] जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा सप्तभंगी ही क्यों ? वस्तु का प्रतिपादन क्रम और योगपद्य, इन दो पद्धतियों से होता है। वस्तु में 'अस्ति' धर्म भी होता है और 'नास्ति' धर्म भी। (१२) 'वस्तु है'- यह अखि धर्म का प्रतिपादन है। 'वस्तु नही हैयह नास्ति धर्म का प्रतिपादन है। यह क्रमिक प्रतिपादन है। अस्ति और नास्ति एक साथ नहीं कहे जा मकते, इसलिए युगपत् अनेक धर्म प्रतिपादन की अपेक्षा पदार्थ अवक्तव्य है । यह युगपत् प्रतिपादन है। (३) क्रम-पद्धति में जैसे एक काल में एक शब्द से एक गुण के द्वारा समस्त वस्तु का प्रतिपादन हो जाता है, वैसे एक काल में एक शब्द से दो प्रतियोगी गुणो के द्वारा वस्तु का प्रतिपादन नही हो सकता। इसलिए युगपत् एक शब्द से समस्त वस्तु के प्रतिपादन की विवक्षा होती है, तब वह अवक्तव्य बन जाती है। __वस्तुप्रतिपादन के ये मौलिक विकल्प तीन ही हैं। अपुनरुक्त रूप में इनके चार विकल्प और हो सकते हैं, इसलिए सात विकल्प बनते हैं। बाद के भंगो में पुनरुक्ति आ जाती है। उनसे कोई नया बोध नहीं मिलता, इसलिए उन्हें प्रमाण में स्थान नहीं मिलता। इसका फलित रूप यह है कि वस्तु के अनन्त धों पर अनन्त सतर्मशियां होती हैं किन्तु एक धर्म पर सात से अधिक भंग। नही बनते। (४) अपुनरुक्त-विकल्प-सत् द्रव्याश होता है और असत् पर्यायांश । द्रव्यांश की अपेक्षा वस्तु सत् है और अभाव रूप पर्यायांश की अपेक्षा वस्तु असत् है। एक साथ दोनो की अपेक्षा अवक्तव्य है। क्रम-विवक्षा में उभयात्मक है। ५-६-७) अवक्तव्य का सदभाव, की प्रधानता से प्रतिपादन हो तब पांचवां, असद्भाव की प्रधानता से हो तब छठा और क्रमशः टोनी की प्रधानता से हो तब सातवां भंग बनता है। प्रथम तीन असायोगिक विकलो में विवक्षित धमों के द्वारा अखण्ड वस्तु का ग्रहण होता है, इसलिए ये सकलादेशी हैं। शेष चारो का विषय देशावछिन थर्ण होता है, इसलिए वे निकलादेशी हूँ . .
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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