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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [१०९ भी निश्चयात्मक रूप से कहने से इन्कार करते हुए उस इन्कार को चार प्रकार कहा है (१) है.........नही कह सकता। (२) नहीं है..... नहीं कह सकता। (३) है भी और नहीं भी नहीं कह सकता । (४) न है और न नहीं है. नही कह सकता। इसकी तुलना कीजिए जैनो के सात प्रकार के स्यादवाद से(१) है........... ..... हो सकता है (स्याद्-अस्ति) (२) नहीं है............नहीं भी हो सकता है (स्यान्नास्ति) (३) है मी और नहीं भी हो सकता है और नहीं भी हो सकता है। (स्यादस्ति च नास्ति च) उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा सकते (वक्तव्य ) हैं ? इसका उत्तर जैन "नहीं" में देते हैं (४) "स्याद् (हो सकता है) क्या यह कहा जा सकता (वक्तव्य) है ? नही "स्याद् अवक्तव्य है। (५) "स्याद् अस्ति क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, "स्याद् अस्ति" अवक्तव्य है। (६) "स्याद् नास्ति" क्या यह वक्तव्य है ? नही, "स्याद् नास्ति' अवक्तव्य है। (७) स्याद् अस्ति च नास्ति च" क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, स्याद अस्ति च नास्ति च" अवक्तव्य है। दोनो के मिलाने से मालूम होगा कि जैनी ने संजय के पहिले वाले तीन वाक्यो (प्रश्न और उत्तर दोनो) को अलग-अलग करके अपने स्याधुवाद की छह भंगियां बनाई और उसके चौथे वाक्य "न है और न नहीं है" को छोड़ कर "स्याद" भी वक्तव्य है, यह सातवां मंग तैयार कर अपनी सप्तमगी पूरी की। , उपलब्ध सामग्री से मालूम होता है कि संजय अपने अनेकान्तवाद का प्रयोग-परलोक, देवता, कर्म-फलं, मुक्त पुरुष जैसे परोन विषयो पर' करता था। जैन संजय की युक्ति को प्रत्यक्ष वस्तुओं पर भी लागू करते हैं। उदाहर
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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